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आध्यात्मिक आलोक
पं. वररुचि लालच के वशीभूत होकर निज पतन के लिए तत्पर हो गए । महामंत्री शकटार के प्रति उनका क्रोध भाव था । अतः उनके मन में व्यग्रता की स्थिति बढ़ने लगी । वह महामंत्री से प्रतिशोध लेने की सोचने लगा । और नगर के चौराहों में विक्षिप्त सा घूमने लगा ।
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इधर शकटार का बड़ा पुत्र स्थूलभद्र रूपकोषा के यहां बस गया था, अतः छोटे पुत्र श्रीयक को महामंत्री विवाह संबंध में बांधकर रखना चाहते थे ताकि वह बड़े का अनुगमन नहीं कर पाये और न कुमार्गगामी ही बन सके । वयस्क पुत्र को उपालंभ देना या अनुचित उचित कहना नीति के विरुद्ध है और जवानी अन्धी होती है, वह भले-बुरे को अच्छी तरह नहीं देख पाती । अतः जवान पुत्र कुल में कलंक तथा अपने उभरते व्यक्तित्व पर धब्बा न लगा ले, एतदर्थ पुत्र को विवाह सूत्र में बांधना ही महामंत्री को उचित जंचा ।
अशिक्षित और मध्यम परिवारों को छोड़कर आजकल बाल विवाह की प्रथा कम हो गयी है । जैसे बाल विवाह करने से बल, वीर्य और जीवन-क्षय की संभावना रहती हैं, वैसे ही पूर्ण आयु होने पर विवाह नहीं करने में भी भय रहता है । शकटार का पूरा परिवार शिक्षित था अतः वह इस तत्व को अच्छी तरह जानता था । उसने श्रीयक का विवाह खूब धूमधाम से करने की सोची । विशिष्ट निमंत्रित व्यक्तियों और निजी अतिथियों के अतिरिक्त उसने राजा नन्द को भी निमंत्रित करने का विचार किया। आगत अतिथियों के भव्य स्वागत के अतिरिक्त उन्हे भेंट या उपहार देने की भावना भी महामंत्री के मन में पैदा हुई । ज्येष्ठ पुत्र के वियोगजन्य दुःख को इस उत्सव से दूर करने की इच्छा भी रखते थे । राजा को सवारी, अस्त्र शस्त्र आदि प्रिय होते हैं, इसलिए उन्होंने कर्मचारियों को आदेश दिया कि भेंट देने योग्य, उत्कृष्ट सवारियां तथा अस्त्र-शस्त्र बनवाए जावें ।
मनुष्य सुख-दुःख के अवसरों में ही ठगा जाता है । कारण सुख दुःख के आवेग मनःस्थिति को असामान्य बना देते हैं, जिससे विवेक का सन्तुलन बिगड़ जाता है । वररुचि ने जान लिया कि महामंत्री के द्वारा अस्त्र शस्त्र बनाने की तैयारी चल रही है | उसने तत्काल निर्णय लिया कि अब इस अवसर का लाभ न उठाना, उसके पाण्डित्य में बट्टा लगाना होगा । क्योंकि प्रतिहिंसा की आग उसके दिल में धू धू कर जल रही थी, इस भेद को जानकर उसे संतोष हुआ । उसने राजा के द्वारा शकटार को दण्ड दिलाने का अच्छा अवसर देखा । वह इस प्रयत्न में पूर्णरूप से लग गया ।