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आध्यात्मिक आलोक जीवन सुधार का कार्य करता है.। वस्तुतः जीवन को बनाने या बिगाड़ने का सारा दायित्व चारित्र पर ही निर्भर है । शास्त्रों का ज्ञान, वक्तृत्व कला निपुणता और . प्रगाढ़ पाण्डित्य आदि व्यर्थ हैं, यदि मानव में सच्चरित्रता का बल नहीं हो।
जीवन धारण में भोजन का महत्वपूर्ण स्थान है अतः संसार का समस्त उद्योग भूख मिटाने के लिए ही चल रहा है । शरीर रचना के साथ यदि भूख का सम्बन्ध नहीं होता, तो आज आप संसार का जो स्वरूप देख रहे हैं वह हर्गिज इस रूप में नहीं देख पाते । लड़ाई, कलह, द्वेष या ईर्ष्या की विभीषिका, जन-मन को व्यथित नहीं कर पाती । इस प्रकार जीवन में भोजन का महत्व होते हुए भी मानव जगत में, खासकर भारतवर्ष में खाने का समय निश्चित है । पशु की तरह मनुष्य हर समय खाते नहीं रहता। बार-बार खाने से दांत में भोजन के कण रह कर सड़ जाते, जिससे दर्द होने लगता और अंत में दांत निकालने की नौबत आ जाती है। किन्तु समय पर सात्विक भोजन करने से मन स्वस्थ और प्रसन्न रहता है । कहा भी है
"जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन ।
जैसा पीवे पानी, वैसी निकसे वाणी" आनन्द ने आगार धर्म का पालन करते हुए भोजन विधि में दही-बड़े के अतिरिक्त अन्य अम्ल पदार्थों का परित्याग कर दिया । भोजन से भी बढ़कर जीवन में जल का स्थान होता है । अतः आनन्द जल का परिमाण करता है । नदी, तालाब, कुआं, बावड़ी और नल-कूप आदि जल प्राप्ति के अनेक साधन हैं । कुएं के पानी की अपेक्षा तालाब के जल में अधिक जीव जन्तु होते हैं । पानी यदि छानकर नहीं पीया जाय, तो जीव-जन्तु पेट में चले जाएंगे, जिससे शरीर की भी हानि होगी तथा अकारण अधिक हिंसा का पाप सर पर चढ़ेगा | चाणक्य ने भी अपने नीतिशास्त्र में कहा है_ . दृष्टि पूतं न्यसेत्पादं, वस्त्रपूतं जलं पिवेत् ।
सत्यं पूतं वदेत् वाक्यं, मनः पूतं समाचरेत् ।। अर्थात्-देखकर पैर रखना उत्तम है । वस्त्र से छना पवित्र जल पीवें । सत्य से पवित्र वाणी बोलें और पवित्र मन धारण करें यह नीति है । वस्त्र से छाने जाने पर जल पवित्र हो जाता है । उसकी पवित्रता के अन्य विचार तो देश कालानुसार लोगों के कल्पित हैं। उसमें अपनी सुविधा का ही मुख्य लक्ष्य है । घड़े में थूक दिया जाय तो पानी अपवित्र मानकर फेंक दिया जाता है । ग्रहण में घर का जल फेंक दिया जाता है पर मरुप्रदेश में या जलाभाव में कुश डालकर पवित्र ।
लिया जाता है । जलाशयों को स्वयं अपवित्र करने, उसमें नहाने, धोने और दंत