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आध्यात्मिक आलोक प्रक्षालनादि करने में लोग संकोच नहीं करते, बल्कि पुण्य मानते हैं। अधिक जल होने से वहाँ मन का समाधान कर लेते हैं कि जल राशि विशाल है । अतः वह राशि अपवित्र नहीं होती।
आनन्द ने पीने के पानी के लिए संकल्प किया कि वह बड़ी टंकी में संगृहीत आकाश का पानी ही पियेगा । चातक की तरह उसने भी जमीन के समस्त जल को अपने लिए अपेय मान लिया । इस प्रकार उसने अपनी आवश्यकता को सीमित किया।
___ आहार शुद्धि की आवश्यकता पर महावीर स्वामी ने बहुत अधिक बल दिया है। हित, नियमित, परिमित शुद्ध आहार से जीवन चलाने वाले व्यक्ति का शरीर हल्का रहता है, पराधीनता से मुक्त होता तथा रोग रहित रहता है। यदि भोजन में नियमन न हो तो गृह लक्ष्मी को हमेशा चूल्हा जलाए रखना पड़ता है । ऐसे घरों में पति-पत्नि में टकराने तथा मनोमालिन्य का भी अवसर उपस्थित हो जाता है । दिन-रात चूल्हा जलने वाले घर में जीव-जन्तुओं की हिंसा अनिवार्य होगी और गृह लक्ष्मी के उसमें उलझे रहने से बच्चों को माँ के प्यार एवं सुसंस्कार से भी वंचित रहना पड़ेगा।
जब माताओं का समय भोजन, श्रृंगार आदि में चला जाय और पतियों का बाजार, ऑफिस, सिनेमा और क्लब आदि में तो ऐसे घरों के बच्चों का भगवान ही मालिक है । वे सुधरें या बिगड़ें दूसरा कौन देखे ? जिन बच्चों को बचपन में धर्म शिक्षा की पूंटी नहीं मिलती, बड़े होने पर उनमें धर्म रुचि कहां से आएगी? श्रीकृष्ण गिरि उठाकर गिरिधर बन गए. पर आज मानवों को ज्ञानाराधना भी भार स्वरूप लग रही है । सुसंस्कार के तीक्ष्ण धार से मंजा हुआ मनुष्य संकट के पहाड़ को भी तिनका समझकर पार कर जाता है। राम, कृष्ण और महावीर स्वामी सरीखे महापुरुषों की बात छोड़ भी दें, तो साधारण मानवों ने भी, बचपन के सुसंस्कार वश भयंकर से भयंकर विपत्तियां पार कर ली हैं।
. कथा भाग में महामन्त्री शकटार की बात चल रही है । उसमें बताया गया कि बुद्धिमान व्यक्ति जोश में भी कैसे होश से काम लेता है । महामन्त्री के पुत्र श्रीयक ने जोश में राजा से कानूनी लड़ाई लड़ने की बात कही, परन्तु महामन्त्री शकटार अनुभवी तथा विचारवान् व्यक्ति थे । अतः क्षणिक जोश में आकर होश गंवाने वाली पुत्र की बात से प्रभावित नहीं हुए और अपनी नीति उसके सामने रखते हुए बोले कि
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे सकलं त्यजेत् ।।