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[३२] आहार शुद्धि
आत्म-पतन से भयभीत मानव अपने स्वरूप के सम्बन्ध में निरन्तर चिन्तन करता रहता है । मैं कौन हूँ कहां से आया हूँ और कहां जाऊंगा आदि बातें साधनशील के मन में उठती रहती हैं और वह जीवन-निर्माण के लिए सतत् सचेष्ट बना रहता है । किन्तु जिसके मन में भविष्य का भय नहीं, वह जीवन के सुधार-बिगाड़ को कुछ नहीं समझता । साधक को चाहिए कि वह आत्म-सुधार के लिए प्रथम जीवन-सुधार और फिर मरण सुधार करे।
__ यह मानी हुई बात है कि पूर्वभव का पुरुषार्थ संचित कर्म के रूप से काम करता है और यही कारण है कि आज कोई अल्प-श्रम में भी सुखी और कोई महान् श्रम करते हुए भी दुःखी बना रहता है। यदि पूर्व भव का पौरुष काम नहीं करता, तो कर्म फल में यह अन्तर दिखाई नहीं देता । जीवन कभी-कभी बदल जाता है एक तपातपाया साधक बिगड़ जाता तथा संस्कारवश कोई बिगड़ा हुआ व्यक्ति भी साधक बन जाता है। कभी-कभी तो जीवनभर बिगड़ा रहकर अन्तिम समय कोई-कोई सुधर जाता ऐसे नमूने भी देखे गए हैं । परमार्थ दृष्टि से देखने पर पूर्व संचित कर्म ही इसका बीज है । जहाँ जीवन सुधर रहा है, वहाँ पूर्व के सुकर्म का फल है । पूर्व जीवन में अच्छी करणी होने से बिगड़ा मानव सुधर जाता और जहाँ पूर्व के अशुभ कर्म का जोर है, वहाँ शुभ निमित्त मिलने एवं सुधार का प्रयत्न करने पर भी जीवन सुधर नहीं पाता । फिर भी वातावरण और पुरुषार्थ का असर अवश्य होता है। इस तरह मरण सुधार के लिए जीवन सुधार और जीवन सुधार के लिए वृत्तियों पर संयम करना आवश्यक है।
श्रुत धर्म जीवन में ज्ञान और श्रद्धा उत्पन्न करता है और जब श्रुत धर्म से साधक में विश्वास उत्पन्न हो जाता है, तब चारित्र व्रत नियम के द्वारा साधक अपना .