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आध्यात्मिक आलोक
161 उज्जयिनी के राजदरबार में पत्र पढ़ा गया । पता की आज्ञा शिरोधार्य है, कह कर कुणाल ने आदेश दिया कि राजाज्ञा का पालन तत्काल किया जावे । गरम शलाका मंगवाकर कुणाल ने स्वयं ही उससे अपनी आंखें फोड़ ली। अंधा हो जाने से कुणाल अब राज्य का उत्तराधिकारी नहीं रहा । रानी को पत्र में बिन्दी लगाकर कुणाल को अंधा बनाने की क्या आवश्यकता थी ? अपने पुत्र की राज्य प्राप्ति तो राजा के आदेश से यों भी हो सकती थी, फिर भी ऐसा कलुषित कृत्य करने से वह नहीं चूकी । यह स्वार्थ की महिमा है ।
आज मानव के मन में इसी प्रकार कुवृत्तियों का भूत नाच रहा है। दूसरे का धन छीन लेना, अपने अधीनस्थ व्यक्ति को नौकरी से अलग करवा देना और दूसरों को सताना आदि न जाने कितने कुकर्म, मानव अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए करता है । दूसरों के धन, जन और भवन आदि छीन कर ले लेने की अनेकों घटनाएं नित्य सुनी जाती हैं । इन अनावश्यक मानसिक दुर्वृत्तियों को दबाकर अपनी
आवश्यकताओं को यदि सीमित कर दिया जाय, तो मनुष्य की अशान्ति और आकुलता मिट जायेगी । प्रदेश-प्रदेश में, देश-देश में एवं सम्प्रदाय सम्प्रदाय में झगड़े चलते हैं, नेतृत्व के लोभ में पड़कर सत्य पर पर्दा डालकर उसे असत्य में बदल दिया जाता है। इन सबका मूल कारण स्वार्थ-वासना और मन की विकृत लालसा ही तो है।
सत्संग, भगवत्भजन आदि शांत दशा में होते हैं और शान्ति सन्तोष के बिना अर्थात् 'अपनी आवश्यकताओं को सीमित किए बिना प्राप्त नहीं होती । अतः नियमन द्वारा जीवन में संयम लाइए । चक्की में हजारों दाने पिस जाते हैं, किन्तु कील से चिपका हुआ दाना बिना पिसे रह जाता है, सर्वथा बच जाता है । सीमा रहित अनन्त आवश्यकता वाले मनुष्यों को तो चक्की में पिसे जाने वाले दाने के सदृश्य समझना चाहिए और कील के पास सुरक्षित दानों के समान उन साधकों को समझना चाहिए जो अनन्त ज्ञानी वीतराग प्रभु की शरण में लीन हो जाते हैं तथा अपनी वृत्तियों पर अंकुश रखते हैं । सारांश 'यह है कि यदि आकुलता और अशांत स्थिति से बचना है तथा लोक और परलोक दोनों सुधारना है, तो अपनी आवश्यकताओं और रागात्मक वृत्तियों का संयम कीजिए जिससे सहज निर्दोष आनन्द की प्राप्ति हो सके।
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