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आध्यात्मिक आलोक
आज मनुष्य की वृत्तियों में कमी नहीं, बल्कि विस्तार ही विस्तार है । लोग आक के पते का भी अचार बनाते हैं और पशु की खुराक पर भी हाथ फेरना आरंभ कर रहे हैं । घास तो पशुओं का भक्ष्य है, मगर मानव उसे भी नहीं . छोड़ता। फल, फूल, पत्ती तो मानव खाता ही था, अब वह रस मिलने पर घास भी आत्मसात् केरना चाहता है । आनन्द ने सोचा कि जीवन में हिंसा घटने के साथ यदि वृत्ति में सीमा आ जाएगी, तो अन्य प्राणियों के प्रति ईर्ष्या, दुर्भावना, संघर्ष और घृणा आदि नहीं होगी । दुर्भावनाएं प्रायः तभी होती हैं, जब दूसरे की रोटी पर कोई हाथ फेरता है । वस्तुतः ऐसी वृत्ति जीवन को अशान्त तथा दुःखद बनाती है।
मानव-जीवन में कृत्रिमता बहुत बढ़ गई है, इससे जीवन भार भूत बनता जा रहा है । समाज के सीधे-सादे किसान भाई भी आज बनावटीपन के चक्कर में फंसते नजर आते हैं । सादे जीवन की जगह आज उन्हें भी भड़कीलेपन से प्यार होता दिखाई देता है। शहर की कृत्रिमता धीरे-धीरे गांव की ओर फैलती जा रही है। साधारणतया नमक-मिर्च से ही सब्जी बन जाती है। किन्तु जीरा-मेथी आदि की बधार डालकर आज उसे अधिक सुस्वादु बनाने की चेष्टा की जाती है । इस तरह मनुष्य महारंभी बनकर अखाद्य वस्तुओं को भी ग्रहण करने में आज संकोच नहीं करता। इससे प्रतीत होता है कि मनुष्य अपना जीवन मात्र खाने के लिए समझने लगा है।
तालाब के पानी को बाहर जाने से पाल रोकती है, उसी प्रकार वृत्तियों के जल को रोकने वाला नियम है । यदि जीवन में नियम नहीं होगा तो मनुष्य अपनी वृत्तियों को इतना बढ़ा लेगा कि वह प्रलयंकारी रूप ग्रहण कर लेगा।
मनुष्य जिन कारणों को सख के साधन मान रहा है, वे ही उसके दुःख के कारण बन जाएंगे । जिन बांधों ने बाढ़ों का रूप धारण कर लिया, उनमें कहीं कमजोरी अवश्य रह गई होगी। इसी प्रकार नियम की कमजोरी से जीवन का पाल भी टूट जाएगा.। सदाचार, सद्गुण और सुभावना के लिए नियम की दृढ़ पाल चाहिए अन्यथा जीवन गड़बड़ा .जाएगा और संचित आध्यात्मिक धन नष्ट हो ।
जाएगा।
नियम का महत्व हर काल में अक्षुण्ण रहता है । देश काल का कोई भी प्रभाव उस पर नहीं पड़ता । चाहे अढाई हजार वर्ष पूर्व का आनन्द वाला काल हो ।
या आज का, नियम पालने की जरूरत तब भी वैसी ही थी और आज भी वैसी ही , है । शारीरिक दृष्टि से भी यदि खान-पान में संयम नही होगा तो शरीर में विकार . उत्पन्न होंगे ही । फल, सब्जी एवं वनस्पति में भी अनेक बीमारियां होती हैं । ऋतु
कृत या अन्य कारणों से ककड़ी के मुंहः पर तथा तरोई में कड़वापन आ जाता है .