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[ २९ ] • भोगोपभोग नियन्त्रण
बाह्य विकारों से मन को दोलायमान नहीं होने देना साधक का परम कर्तव्य है । अशुद्धाचरणों का परित्याग कर जीवन को शुद्ध बनाना एवं बाह्याकर्षणों और रागरंगों से दूर रहना साधक जीवन के लिए आवश्यक माना गया है । भोगोपभोग की वस्तुओं का परिमाण करना, देखने में तो बाह्य नियंत्रण है, किन्तु इसका मन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है । द्रव्य त्याग, अन्तरंग त्याग को पुष्ट करता और सद्भावना का कारण बनता है ।
अब पेय के पश्चात् भक्ष्य का प्रसंग आता है । भक्ष्य विधि में-आनन्द ने. भगवान के चरणों में संकल्प किया कि आस्वादन या रसना तृप्ति के लिए मैं भोजन नहीं करूंगा । इस प्रकार भक्ष्य के अन्तर्गत सभी खाने की वस्तुएं आ जाती हैं । आज तो मनुष्य इस बात का विचार ही नहीं करता कि खाद्य-वस्तु में कौन सन्मतिकारक और कौन बुद्धि-विनाशक एवं विकारी है । आज का मानव सुपाच्य एवं . सुस्वाद को ग्राह्य मानता है । सदोष आहार के कारण आज का तन-मन दोषपूर्ण बना हुआ है । नित्य. नये-नये रोग, दवा और दवाखाने बनते जा रहे हैं । समाज एवं राष्ट्र की औसत आयु नीचे गिरती जा रही है । आनन्द लघु आहार में मीठा पदार्थ ग्रहण करता जो शर्करा और घृत संयुक्त होता । प्रचलित भाषा में घृतपूर्ण खाजे के अतिरिक्त शेष सभी मिष्ठानों का उसने परित्याग कर दिया ।
इस प्रकार परिमाण कर लेने से रसना की मांग कम हो जाती और मन की आकुलता मिट जाती है । ग्रामीण क्षेत्र में अतिशय श्रीमन्त होते हुए भी उसने आहार, विहार और निवास में अन्य लोगों के समान ही अपनी स्थिति बना रखी थी। इससे लोगों में विषमताजन्य ईर्ष्या के बदले श्रद्धा और सम्मान के भाव जागृत हो गए । इच्छा को सीमित करना और वासना की आग को बढ़ाने में अपने को निमित्त