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ज्ञान का प्रकाश
प्रभु ने ज्ञान की खुराक देते हुए साधकों की स्थिति पर बड़ी गंभीर दृष्टि रक्खी है, जिससे कि सामान्य स्थिति वाला साधक भी उससे अच्छी तरह लाभ उठा सके। बहुत से लोग सोचा करते हैं कि धर्म स्थान में साधना करना, वृद्धों का काम है, किन्तु ऐसा सोचना गलत है और इसी भ्रम के कारण, सर्वसाधारण का मन, इस ओर नहीं बढ़ पाता । इतिहास साक्षी है कि राज घराने के लोगों ने भरी जवानी में राजवैभव, सुख-विलास, आमोद-प्रमोद आदि को छोड़कर, साधनाएं प्रारम्भ कीं । लोग इसे भूल जाते हैं ।
मनुष्य मोहनी - माया की प्रबलता से, संसार के रमणीय-भावों में लुभा कर, क्षणभंगुर भोगों में इतना मस्त हो जाता है कि उसे निज-गुण की कोई सुध ही नहीं रह जाती, आप देखते हैं कि वर्षाकाल में बच्चे, मिट्टी का घर बनाने में, इतने तल्लीन हो जाते हैं कि खाना-पीना भी भूल जाते हैं और मां-बाप के पुकारने पर भी ध्यान नहीं देते । यदि कोई राहगीर उसके घर को तोड़ दे तो वह झगड़ बैठता है । वह मिट्टी के घरोंदे में राजमहल जैसा आनन्द का अनुभव करता है ।
यद्यपि मिट्टी वाला घर कोई उपादेय नहीं है और सयाने लोग बच्चे के इस प्रयास पर हंसते हैं, फिर भी वह किसी की पर्वाह किए बिना कीचड़ में शरीर और वस्त्र खराब करते नहीं झिझकता। ठीक यही स्थिति मंद-मति संसारी जीव की है। वह बच्चे के घरोदे की तरह नाशवान कोठी, बंगला और भवन बनाने में जीवन को मन-मलिन करता रहता है। घरोदे के समान ये बड़े-बड़े बंगले भी तो बिखर जाने वाले हैं। क्या आज के ये खंडहर, कल के महलों के साक्षी नहीं हैं ? जिनके निर्माण में मनुष्य ने अकथ श्रम और अर्थ का विनियोग किया था ।
पक्षी के घोंसले के समान, सरलता से नष्ट होने वाले घर के पीछे मनुष्य रीति, प्रीति और नीति को भूलकर, काम-क्रोध लोभ के वशीभूत होकर पाप करता, कई