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आध्यात्मिक आलोक धनं प्राप्य दत्तं मया नो सुपात्रे, अधीतं न शास्त्रं मया भूरि बुद्धौ । तपः सद् बले नो कृतश्चोपदासो, गतं हा ! गतं हा ! गतं हा ! गतं हा !
अर्थात् धन पाकर मैंने सुपात्र को तथा शुभ कार्य के लिए दान नहीं दिया, बुद्धि पाकर शास्त्र का अध्ययन नहीं किया, और बल पाकर तप साधन नहीं किया, इस प्रकार हाय ! मैंने सब गंवा दिया । संसार में ऐसे व्यक्ति को लोग चतुर नहीं कहते । किसी ने ठीक ही कहा
"ऊगे जहं बोवे नहीं, बौवे जहं जल जाय ।
ऐसे पापी जीव का, माल मिसखरा खाय ।।" आजकल आध्यात्मिक शिक्षा की ओर लोगों की प्रवृत्ति छूटती सी-जा रही है। जीविकोपार्जन के लिए मां, बाप अपने बच्चों को, लॉ, कॉमर्स, इंजीनियरिंग आदि की ऊँची-ऊँची उपाधियाँ प्राप्त कराने के लिए शिक्षा दिलाते हैं, किन्तु धर्म शिक्षा की ओर . ध्यान नहीं देते । वे सोचते हैं कि धर्म शिक्षा लोक-जीवन में काम नहीं आती। इसके द्वारा जीवन की आवश्यकता पूरी नहीं की जा सकती, किन्तु यह भूल है । यदि ज्ञान का धन अच्छी तरह मिलाया जाय तो आवश्यकता की कोई पीड़ा नहीं सतायगी। फिर उसकी पूर्ति के लिए छटपटाने की तो आवश्यकता ही क्या ? सोना-चांदी आदि के धन से धनी रहने वाले को सदा खतरा बना रहता है किन्तु ज्ञान धनी अजातशत्रु एवं सबका प्रेम पात्र होने के कारण निर्भय और निश्चिंत रहता है ।
आध्यात्मिक शिक्षा देने से ज्ञान दर्शन आदि के प्रति नई पीढ़ी की प्रवृत्ति रहेगी और इससे वे धर्म-विमुख होने से बचेंगे । यदि सुशिक्षा नहीं मिली, तो ये बच्चे गृहस्थों का कौन कहे साधु तक का माथा कुतर्क द्वारा मूंड लेंगे तथा आत्मा परमात्मा तक को भूल बैठेगे । इस प्रकार उनका उभयलोक बिगड़ जायेगा ।
इसीलिए संतों ने जीवन में सफलता की कुंजी यह बतलाई है कि अज्ञान का पर्दा दूर हटाओ तथा आत्मा का दर्शन करने के लिए श्रुत वाणी का पाठ करो एवं नित्य ज्ञान-गंगा में डुबकी लगाओ । ज्ञान द्वारा तप साधना और स्वाध्याय की
ओर प्रवृत्ति होगी और इससे लोक तथा परलोक में कल्याण के भागी बन सकोगे, जो मानव जीवन का परम लक्ष्य है ।