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आध्यात्मिक आलोक
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है । अज्ञान और मोह के दूर होने पर भीतर में आत्मबल का तेज जगमगाने लगता है । जैसे श्यामघन के दूर हो जाने से सूर्य का बिम्ब दैदीप्यमान हुआ दिखाई देने लगता है ।
आज वास्तविक ज्ञान-प्राप्ति का लक्ष्य लोगों के सामने नहीं है। अधिकांश लोग आज अर्थोपार्जन के ज्ञान में ही पक्के होते जा रहे हैं । इसके लिए वे किसी भी प्रयास को अनायास सर आंखों चढ़ा लेते हैं । दुर्गम खानों की अतल गहराइयों में से स्वर्ण, समुद्र के गर्भ से मोती और सर्प - मस्तक से मणी तथा गज के माथे से मुक्ता निकालने में वे जरा भी नहीं हिचकते । ऐसे द्रव्योपार्जन के हजारों असंभव कार्यों में अपने जीवन को तिल-तिल कर जलाते हुए भी प्राणी कष्ट का अनुभव नहीं करते । और तो क्या ? जर्जर वृद्धावस्था में भी नये बाट और दशम प्रणाली का ज्ञान मनुष्य सीख लेता है, जिससे व्यापार में किसी प्रकार की रुकावट नहीं आने पावे, पर आत्म-कल्याण के लिए काम आने वाले ज्ञान की ओर ध्यान ही नहीं जा पाता । इस तरह " मुहर लुटाकर कोयले पर छाप" वाली कहावत को हम अक्षरशः सत्य करने पर तुले हुए हैं भला ! इससे भी बढ़कर आश्चर्य की कोई और बात हो सकती है ।
आज धर्म के लिए ज्ञान सीखना भारी माना जाता है । लोगों की धारणा बन गई है कि नवकार मंत्र से ही बेड़ा पार हो जायगा । प्राचीन समय की कथा है कि एक चोर फांसी पर लटक रहा था उस समय उसे जोरों से तृषा सता रही थी । उसके प्राण छटपटा रहे थे । संयोग से एक सेठजी उस रास्ते से निकले । उसने सेठजी से पानी के लिए प्रार्थना की, तो सेठजी दयालु होने से उसको आश्वस्त करते हुए बोले, "मैं जल्दी पानी लाता हूँ तब तक तूं " नमो अरिहंताणं-नमो अरिहंताण”- का पाठ करता रह ।" सेठजी पानी लाने को गए और इधर चोर विश्वासपूर्वक "नमो अरिहंताण" के बदले " नमो हन्ताणं सेठ वचन प्रमाणं” कहने लगा | सेठजी पानी लेकर आए, तबतक उसका प्राण पंखेरु काया का पिंजरा छोड़ कर उड़ चला था। शुभ विचारों के कारण वह मरकर देवगति का अधिकारी बन गया । यह कथानक अपवाद रूप है। चोर की तरह हर आदमी ऐसा सोचे कि चलो जीवन भर कौन खटखट करे, अन्त समय सब ठीक कर लेंगे तो ऐसा होना संभव नहीं है । चोर को पुण्योदय से सत् वाक्य में श्रद्धा हो गई किन्तु संसार के सर्वसाधारण मानव जो आकण्ठ मोह-माया में निमग्न है, उनके लिए ऐसा नहीं होता । अतः पहले से कुछ ज्ञान मिलाकर अभ्यास करना आवश्यक है। अवसर पाकर जो आत्म-साधना में प्रमाद करते हैं वे स्वर्ग में देव होकर भी पश्चात्ताप करते हैं । जैसे कि कहा है