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आध्यात्मिक आलोक की हानि करता और परिग्रह की लपेट में अपने को लाता है । इस तरह द्रोपदी के चीर की तरह मनुष्य की आकांक्षा बढ़ती जाती है । अपने विवाह की मस्ती का नशा उतरने पर वह पुत्र-पुत्रियों के विवाह के चक्कर में पड़ जाता है । वह संसार की नश्वरता एवं जीवन की क्षणभंगुरता को अहर्निश देखते हुए भी विश्वास नहीं कर पाता कि एक दिन उसे भी चिता के रथ पर चढ़कर कहीं और दूर देश के लिए प्रस्थान करना है।
राजकुमार नमि जब संन्यास लेने को उद्यत हुए तब ब्राह्मण रूप धारी इन्द्र ने उनसे कहा कि
पासाए कारइत्ताणं, बड़ढमाण गिहाणि य ।
वालग्गपोइयाओ य, तओ गच्छसि खत्तिया ।। राजन् । पहले भव्य भवन और प्रासाद बनवालो, फिर इसके बाद साधु बन कर त्याग का मार्ग अपनाना । यदि प्रासाद नहीं बनवाओगे, तो पुत्र, कलत्र और परिवार के लोग, जो तुम्हारे आश्रित हैं, दुःख पाएगे और तेरी कटु आलोचना करेंगे। इस तरह जिनके बीच आजतक तुम बड़े समझे जाते रहे हो, अब छोटे समझे जाओगे । गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि-"येषां चत्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्" राजर्षि नमि ने प्रत्युत्तर देते हुए इन्द्र को कहा कि
संसयं खलु सो कुणइ, जो मगे कुणइ घरं ।
जत्यैव गंतुमिच्छेज्जा, तत्थ कुविज्ज सासयं ।। मुझे स्थायी प्रासाद बनाना है जो आंधी, वर्षा और बवण्डरों के बीच में भी सुदृढ़ तथा ठोस बना रहे । जिसपर काल और परिस्थिति का प्रभाव नहीं पड़ संके और जो हर दृष्टि से अनुपम तथा अद्वितीय हो । मंजिल की जगह पर ही घर बनाना बुद्धिमानी है । रास्ते में वही घर बनाएगा, जिसको यात्रा की पूर्णता में संशय है अथवा ज्ञान का साथ सदा नहीं मिलता । जिसको लक्ष्य पर पहुँचने की शका न हो, वह बीच में डेरा क्यों डालेगा । मेरा घर तो मोक्ष धाम है, फिर नश्वर घर बनाने की आवश्यकता क्या है । इन्द्र समझ गया कि यह दृढ़ विचारों वाला महापुरुष है जिस पर सांसारिक प्रलोभन का कोई असर नहीं पड़ सकता ।
___जीवन-निर्माण में ज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है । ज्ञान के बिना दर्शन स्थिर नहीं होता और वृद्धि भी नहीं पाता । दर्शन को व्यवहार दशा में लाने तथा पुष्ट करने का साधन, ज्ञान ही है। महावीर स्वामी ने साधु-साध्वियों तथा अन्य साधकों को ज्ञानपूर्वक क्रिया-साधना का उपदेश दिया है। शास्त्र में कहा है