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आध्यात्मिक आलोक
131 कुछ समय के लिए अलग कर दिया जाता है । यह दमन है, किन्तु वहां सत् शिक्षा से उसकी वृत्तियों को सुधारना ही उद्देश्य है । इस प्रकार दमन पूर्वक भी शमन से मन निर्विकार बनाया जाता है ।
आनन्द ने अपनी भोग सामग्री को ज्ञानपूर्वक मर्यादित किया जो कि शमन है। क्योंकि यहां बलपूर्वक किसी के द्वारा दमन नहीं है । अज्ञान दशा में दमन का उपयोग होता है किन्तु ज्ञानी के लिए इसकी जरूरत नहीं रहती । अबोध बालक को चोरी या बीड़ी आदि की कुटेव पड़ जाय और माता-पिता उससे पैसे छीनकर उसे वैसा नहीं करने दे, कुसंगति में नहीं बैठने दे, यह दमन का रूप है परन्तु जब वस्तु के हानि लाभ समझा कर, सन्मार्ग का भान कराकर, उसकी रुचि बदल दे तो यह शमन होगा, और इसका प्रभाव भी स्थायी होगा ।
दमन में बाह्य बल की अपेक्षा है, तो शमन आन्तरिक बल से किया जाता है। उससे आत्मा को स्थिर शान्ति का अनुभव होता है । दमन से शान्ति प्राप्त नहीं होती, जैसा कि वररुचि के उदाहरण से स्पष्ट है । सम्राट नन्द के दरबार से आठ मुहरों का मिलना बंद हो गया यह वररुचि की तृष्णा का दमन हुआ । इसके बदले समझाकर मुहरें देनी बन्द की जाती तो वह शमन होता । स्वेच्छा से उपवास करना शमन है किन्तु व्यक्ति के आगे से परोसी हुई थाली खींच लेना दमन है । पंडितजी ने गंगा तट पर यह स्वांग बना रक्खा था कि गंगा माई मुझे मुहरें देती हैं । इस बात की भी कलई खुल गई । वररुचि कहीं का न रहा । फिर भी उसने भाग जाने में अपना अपमान समझा । उसको अहं हुआ कि मुझ जैसे पंडित को एक साधारण मंत्री ने अपमानित कर दिया । इसलिए वह प्रतिशोध के लिए चिन्तित रहने लगा । शास्त्र और शस्त्र इनमें शास्त्र विद्या अधिक महत्वपूर्ण है । शस्त्र विद्या का उद्गम भी शास्त्र से ही है । अतः शस्त्र विद्या से शास्त्र विद्या बड़ी है | पंडित ने सोचा कि शास्त्र को लज्जित नहीं होने दूंगा, वरन् प्रतीकार कर शास्त्र को विजयी बना दूंगा ।
वररुचि अपमानित होकर प्रतिहिंसा के लिए वैसे ही तड़पने लगा जैसे कोई घायल सांप अपने विरोधी से बदला लेने के लिए तड़पता हो । कुछ मानव भी सांप की प्रकृति के होते हैं, वररुचि भी इसी प्रकृति का था । उसने सोचा मंत्री बड़े हैं मगर इससे क्या ? इसकी बुद्धि को ठिकाने तो लगाना ही है । इस प्रकार सोचते-सोचते वह पागल-सा हो गया । मानव में अर्थनाश और मान भंग आदि से भी कभी-कभी उन्माद आ जाता है और' कभी प्रिय वियोग एवं अप्रिय संयोग से