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आध्यात्मिक आलोक गई और चारों ओर हरियाली छा गई । प्राणी मात्र में शांत स्थिति दिखाई देने लगी। ऐसे अवसर में यह पर्व मन की आकुलता को दूर कर शांति लाता है।
हिंसा बचाने का उत्तम काल यही है । विकारों के चक्र से जब मनुष्य मुक्त होता है, तो मन में शांति आती है । ऐसी स्थिति में ज्ञान साधना के द्वारा विषय-कषाय घटाया जा सकता है । समय का चक्र चलता ही रहता है । प्रमादी ऐसे सुअवसर को भी गंवा देता और जीती बाजी हार जाता है । अतः निश्चय बल को दृढ़ करना चाहिए । साधना के मार्ग में लगकर यदि-साधक प्रमाद में पड़ जाय, तो कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। उपासना में तन्मयता अपेक्षित है, अन्यथा "माया मिली न राम" की स्थिति होगी।
पर्व के मंगलमय समय में सभी प्रकार के गृह जंजाल को छोड़ने का तात्पर्य उपासना में लगना और अधिक समय आध्यात्मिक लाभ के लिए देना ही है । इस आयोजन का मूल उद्देश्य-दूसरों के निमित्त से स्वयं लाभ लेना, संतों को सुनाने का और श्रोता को सुनने का लाभ मिलना तथा दूसरे के निमित्त से साधना के मार्ग में वृद्धि करना है।
सम्यग्दर्शन को पुष्ट करना है तो यह ध्यान रखना होगा कि सतत उसकी आराधना की जाय । ज्ञान बिना दर्शन पुष्ट नहीं होगा | दर्शन का वास्तविक अर्थ विश्वास है । यदि देव गुरु और धर्म पर विश्वास न हो, तो कुछ भी कार्य सिद्ध नहीं होगा | अतः दर्शन ही सभी साधनाओं की जड़ है । गुरु के वचनों पर विश्वास कर बड़े-बड़े राजाओं ने त्याग के मार्ग पर पैर रक्खा । जैसे त्याग वीर साधक श्रद्धा के बल पर अपनी प्यारी से प्यारी वस्तु को छोड़ देता है, उसी तरह, सबके हृदय में श्रद्धा आ जाना और टिक जाना सहज सौभाग्य की बात नहीं है ।
पैसे, कीमती वस्त्र और आभूषणादि पर लोगों को प्रेम रहता है, परन्तु ये सब सांसारिक शोभा के उपकरण, उपासना के बाधक तत्व हैं, अतः इस महापर्व में बन पड़े जहां तक इनसे दूर रहना चाहिए । धर्म स्थान भी कभी इन मोहकी वस्तुओं से अपवादित हो जाता है और कोई हाथ फेरू आकर धार्मिक स्थलों को बदनाम कर देता है । अतएव इन वस्तुओं को विश्वस्त स्थानों में रखकर शान्त मन से उपासना करनी चाहिए।
एक समय की बात है कि जयपुर के एक जौहरी उपासना करने के लिए धर्म स्थान में आये और सोने का कंठा उतार कर कपड़े में रखा एवं उपासना करने लगे। संयोगवश पास बैठे एक भाई की दृष्टि उस पर पड़ गई । वह बहुत दिनों से