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आध्यात्मिक आलोक
129 पुष्ट करने का कार्य किया । जिस देश में समाज धर्म पुष्ट नहीं होता, वहां व्यक्ति धर्म भी कुशल नहीं । समाज धर्म को व्यवस्थित रूप देने वाले व्यक्ति ही होते हैं । व्यक्ति जागरण के बिना समाज-धर्म पुष्ट नहीं होता । कारण व्यक्तियों का समूह ही तो समाज है।
आभरण विधि के बाद अब आनन्द ने धूपन विधि की सीमा निर्धारित की । घरों में कीटाणुओं तथा जन्तुओं से बचाव करने के लिए आजकल लोग फिनाइल आदि कीटनाशक दवाओं का उपयोग करते हैं, किन्तु पूर्वकाल में इसके लिए धूपन विधि का उपयोग होता था। इससे रोग फैलाने वाले कीटाणु की वृद्धि नहीं होती । 'इन दोनों प्रयोगों में एक में हिंसा-भाव है तो दूसरे में वायु-शुद्धि के द्वारा अशुभ वायु में पलने वाले जन्तुओं को भगाकर आवास स्थान को शुद्ध बनाना है । जब धूप का प्रयोग किया जाता है तो वहां से डांस, मच्छर आदि जन्तु भग जाते हैं । किन्तु मरते नहीं।
भारतीयों में आज कल नकल करने की प्रवृत्ति बहुत बढ़ी हुई है, और इसीलिए पश्चिम की पद्धति यहां भी आंख मूंद कर अपना ली गयी है । फिनाइल आदि जिन दवाओं का प्रयोग किया जाता है, उनमें विषाणु (जहर) होने से कीटाणुओं का नाश हो जाता है । और उन विषाणुओं से दूषित वायु हमारी श्वास नली में प्रविष्ट होती रहती है जो भविष्य के लिए हानिकारक है । फिर दवाओं के भरोसे लोग गफलत करने लग जाते हैं। यदि नियमित सफाई रखी जाय तो निश्चय ही कीटाणु नहीं बढ़ सकते और न उनकी हिंसा की जरूरत ही पड़ेगी।
बहुत दिनों तक कमरों को नहीं संभालने और सफाई नहीं करने से कीटाणु बढ़ा करते हैं। यह निश्चित है कि मानव के प्रमाद, भूल और गलती के कारण ही घर में विषैले जन्तुओं की वृद्धि होती है । मनुष्य इस प्रकार अपनी भूल से उत्पन्न शूल को दवाओं से समाप्त नहीं कर सकता । आनन्द ने धूपन विधि में भी अमर्यादितपन को मिटाने के लिए परिमाण कर लिया। उसका दृष्टिकोण महारंभ से बचकर अल्पारंभ से कार्य चलाने का था ।
शुद्ध, बुद्ध और निष्कलंक पद को पाने के लिए आनन्द ने जीवन में संयम तथा असीम आवश्यकताओं को मर्यादित करना आवश्यक समझा । शारीरिक, कौटुम्बिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक आदि अनेक विध आवश्यकताएं होती हैं जो मानव के द्वारा घटाई बढ़ाई भी जा सकती हैं । जैसे-शारीरिक आवश्यकता में तेल, साबुन, पान-सुपारी, बीड़ी आदि बाह्य आवश्यकता है । आवश्यकता पर नियंत्रण करने वाला अपने मन की आकुलता मिटा लेता है । जैसे-पृथ्वी की गोलाई पर कोई कितना ही