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[ २१ ] विचार और आचार
प्रभु महावीर स्वामी ने जीवन को ऊपर उठाने के लिए दो प्रकार का धर्म बतलाया है । एक विचार धर्म तथा दूसरा आचार धर्म । आचार धर्म में शारीरिक आचार के अतिरिक्त ज्ञानाचार और दर्शनाचार को भी सम्मिलित कर लिया गया है ।
च-गति भक्षणयो धातु से आ उपसर्ग लगाने पर आचार शब्द बनता है । आ का अर्थ मर्यादा है तथा घर से तात्पर्य चलना या खाना है । "आचर्यते इति आचारः" याने मर्यादापूर्वक चलना ही आचार । दूसरे शब्दों में व्यवहार और विचार की दृष्टि से मन, वचन और काय द्वारा मर्यादापूर्वक चलने को आचार कहते हैं । ज्ञान की साधना से सत्यासत्य का बोध होता है । और विकल धर्म वाले गृहस्थ भी आचार द्वारा जीवन को शुद्ध एवं संयत कर सकते हैं ।
जीवन में शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों साधनाओं का सामंजस्य आवश्यक है । जैसे पक्षी अपने दोनों पंखों के कुशल रहते ही ऊपर उड़ सकता एवं स्वैर विहार कर सकता है, वैसे ही मानव जीवन के लिए उपरोक्त दोनों प्रकार की साधना अपेक्षित है । फिर भी जीवन को ऊंचा उठाने के लिए आध्यात्मिक साधना को प्रधान एवं शारीरिक साधना को गौणरूप देना सुसंगत है । सद्गृहस्थ आनन्द आत्म-साधना प्रधान दृष्टि वाला था न कि तन-धन चाहने की बहिर दृष्टि वाला | वह शरीर की ओर इसलिए ध्यान देता कि साधन रूप होने से शरीर आत्म-साधना में सहायक हो सकता है | उसने पूर्व मर्यादित विधि की तरह उवर्तन विधि, विलेपन विधि तथा स्नान विधि के सम्बन्ध में भी मर्यादा स्वीकार की जो इस प्रकार है :
स्नान के समय तेल की मालिश और आटे की पीठी की जाती है, जो अनेक प्रकार की होती है । आनन्द ने अपनी आवश्यकता को नियन्त्रित रखने के लिए इस बाबत मर्यादा की कि शतपाक और सहस्रपाक तेल के अतिरिक्त कोई विलेपन