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आध्यात्मिक आलोक आनन्द ने विचारवान का नहीं, आदर्श जीवन का निर्माण किया। यही कारण है कि आज ढाई हजार वर्षों के बाद भी हम उनकी गुण-गाथा गाते नहीं अघाते हैं।
___ संसार में तीन प्रकार के उत्तम पुरुष होते हैं, १. कर्म उत्तम पुरुष २. भोग उत्तम पुरुष एवं ३. धर्म उत्तम पुरुषा चक्रवर्ती राजा भोग उत्तम पुरुष है । उससे बढ़कर भोग-सामग्री वाला संसार में और कोई दूसरा नहीं होता। तीर्थंकर धर्म उत्तम पुरुष हैं। उनके समान स्व पर हितकारी धर्म-साधना अन्य जन नहीं कर पाते । यह पूर्ण सत्य है कि अपने पुरुषार्थ के बल पर उन्होंने अपना जीवन पूर्ण बना लिया । साधारण साधक कितना भी ज्ञानवान क्यों न हो, तीर्थंकर के सदृश नहीं हो पाता । कर्म उत्तम पुरुष लोकनायक वासुदेव होते हैं। वे अपने बल से विजय मिलाकर संसार में अमर कीर्ति पाते हैं।
इन त्रिविध उत्तम पुरुषों में से एक कर्म उत्तम पुरुष श्री कृष्ण चन्द्र भी हैं। उन्होंने संसार में जन्म लेकर यह बतला दिया कि- सत्कर्मों द्वारा मनुष्य पुरुषोत्तम बन सकता है। श्री कृष्ण चन्द्रजी तीन खण्ड के भोक्ता लोकनायक थे । लोकनायक का प्रधान दृष्टिकोण समाजनीति, अर्थनीति और राजनीति में सुधार करने का होता है। अतः लोकनायक धर्म नायक से भी अधिक जनप्रिय हो जाता है; क्योंकि गरीब से लेकर श्रीमन्त तक का स्वार्थ पोषण होता रहता है । कृष्णाष्टमी उसी लोकनायक की जन्मतिथि है जो प्रतिवर्ष वसुन्धरा पर आकर संसार को बोध का पाठ पढ़ाती एवं कृष्ण की जीवन-महिमा तथा सद्गुणों से जन-मानस को प्रेरित कर-आदर्शोन्मुख बनाती है।
जिस समय हिंसा और सत्ता का घमण्ड लेकर कंस और जरासंघ जनता को उत्पीड़ित कर रहे थे, उस समय उनसे मुक्ति दिलाने हेतु मानो कृष्ण का जन्म हुआ । कंस ने भविष्यवाणी में सुन रखा था कि वासुदेव की सातवीं संतान से उसका वध होगा । इसलिये उसने वासुदेव की सब सन्तानों को जन्म लेते ही मार डालने की सोची। वासुदेव भी विवश हो कर उसकी बात मान गये, मगर विधि का विधान कैसा विचित्र है कि श्री कृष्ण ने जन्म ग्रहण किया और पहरेदारों की आंखों में धूल झोंक कर वासुदेव के द्वारा वे नन्द के घर सकुशल पहुंचा दिये गये और कंस के आदमियों को इसकी खबर तक नहीं लग सकी । श्री कृष्ण के जन्म पर एक कवि ने कहा है कि- "कृष्ण कन्हैया आए आज भारत भार हटाने" | वस्तुतः सत्ता के वैभव में गुणी अकिंचन पुरुषों का मान बढ़ाने का आदर्श रखने को उनका जन्म हुआ। श्री नेमनाथ के प्रति तो उनके मन में इतनी श्रद्धा एवं भक्ति थी कि जब-जब भी नेमनाथ का द्वारिका में पदार्पण हुआ तब-तब श्रद्धा के साथ उन्होंने