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आध्यात्मिक आलोक नहाने का उद्देश्य शरीर शुद्धि है और मर्यादित जल लेकर भी यह कार्य किया जा सकता है । जलाशय तथा खुले नल पर अमर्यादित जल से भी यही कार्य होता है। अतः अनर्थ दण्ड बचाने को आनन्द ने स्नान और वस्त्र प्रक्षालन के लिए आठ कुभि (एक प्रकार का घड़ा) से अधिक जल काम में नहीं लेने की प्रतिज्ञा कर ली | सत्पुरुषों की शिक्षा एवं धर्म मर्यादा कितनी सुन्दर है ? शरीर की आवश्यकता भी पूरी हो गई और महारंभ का पाप भी बच गया । इस प्रकार व्रतधारण से असंख्य जीवों की हिंसा से वह बच सका और दूसरों के लिए भी . विवेक-पूर्वक चलने की प्रेरणा प्रदान की। .
आनन्द की तरह हर आत्मार्थी गृहस्थ को संसार के आवश्यक कार्यों में विवेक से काम लेना चाहिए। इससे बड़ी भारी हिंसा टल सकती है और जीवन भी उज्वल बन सकता है । जो व्यक्ति विवेक से काम न ले तथा जिसकी आवश्यकताओं की सीमा न हो, चाहे वह कितना ही विद्वान क्यों न हो उसकी विद्वत्ता का कोई उपयोग नहीं । गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है -
कामक्रोध-मदलोभ की, जब लग मन में खान ।
"तुलसी" पण्डित मूरखो दोनों एक समान ।। इच्छा पर संयम नहीं करने का ही परिणाम है कि वररुचि जैसे विद्वान को भी लालच के वशीभूत होकर मन्त्राणी के पास पुरस्कार की याचना के लिए निवेदन करना पड़ा । नित्य की तरह वररुचि फिर राजदरबार में श्लोक सुनाने को उपस्थित हुए । महामन्त्री ने श्लोकों की प्रशंसा की और तत्काल ही उनको १०८ मुहरें पुरस्कार के रूप में प्राप्त हो गयीं । फिर क्या था? वे नित्य ही श्लोक बनाकर दरबार में लाते और सम्मान में मुहरें प्राप्त कर ले जाते । महामन्त्री शकटार को विप्र के लालच और मिलने वाले इस नित्य के दान से बड़ा दुःख हुआ । श्रीकृष्ण ने महाभारत में युधिष्ठिर से ठीक ही कहा है :
दरिद्रान भर कौन्तेय ! मा प्रयच्छेश्वरे धनम् ।
व्याघितस्यौषधं पथ्यं, नीरुजस्य किमौषधै : ।। दवा रोगी को दी जानी चाहिए, नीरोग व्यक्ति को दवा देने से क्या लाभ? पण्डित वररुचि को नित्य एक सौ आठ मुहरों का दिया जाना महामन्त्री शकटार को खटकने लगा । वे सोचने लगे कि यदि इसी तरह मुहरें रोज दी गई तो बहुत धनराशि खजाने से निकल जाएगी और राजकोष खाली हो जाएगा । शकटार सोचने लगे कि समय पाकर सम्राट के समक्ष इस विषय को रखना चाहिये ।