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आध्यात्मिक आलोक
113 निवास स्थान को कर्म रज की गन्दगी से बचाने के लिये स्वच्छता और सफाई की आवश्यकता है।
जैसे अज्ञानावस्था में शिशु मल के मर्म को बिना समझे, उसमें रमते हुए भी ग्लानि और दुःख का अनुभव नहीं करता और वही फिर होश होने पर मल से दूर भागता एवं नाक-भौं सिकोड़ता है, वैसे ही सद्ज्ञान प्राप्त नहीं होने तक आत्मा अबोध बालक की तरह मल-लिप्त बनी रहती है, किन्तु ज्योंही सद्गुरू की कृपा से सद्ज्ञान की प्राप्ति हो गयी फिर क्षण भर भी वह मल को अपने पास नहीं रहने देता। साथ ही मानसिक दुर्बलताओं को भी दूर हटाते जाता है। आनन्द श्रावक को भी प्रभु महावीर की कृपा से ज्ञान की ज्योति प्राप्त हो गई। अब उसकी सोई आत्मा जाग उठी। वह पाप का कचरा निकाल फेंकने के लिये उद्यत हो उठा और आने वाले कचरे को रोकने के लिये प्रथम ही आस्रव का दरवाजा बन्द कर दिया।
मानवं जितनी ही अधिक अपनी आवश्यकता बढ़ायेगा उतना ही अधिक उसका पाप भी बढ़ेगा। अतएव आनन्द ने स्नान के पश्चात् अपने व्यवहार योग्य वस्त्र की सीमा निर्धारित करली। जैसे-वस्त्र विधि- स्नान के पश्चात् लोक वस्त्र परिवर्तन करते हैं, जो कई प्रकार के होते हैं। जैन-शास्त्र में वस्त्र की प्रमुख पांच जातियां बताई हैं :
( जांगिक- जंगम जीवों से निष्पन्न यथा भेड़, बकरी आदि के बाल से बना कपड़ा।
__ ) भुंग के तांत से बने वस्त्र- रेशमी और कोसा का वस्त्र जो कीड़ों के तांत से बनाये जाते हैं। शहतूत आदि वृक्षों में कीड़े पाले जाते हैं। ये कीड़े तातों का घर बनाकर भीतर घुस जाते हैं। इन कीड़ों को गरम पानी के कड़ाह में डालकर नष्ट किया जाता है। करीब चालीस हजार कीड़ों के नष्ट करने से एक गज रेशमी कपड़ा बनता है। इस प्रकार महा-हिंसा से निर्मित वस्त्र सदगृहस्थ को धारण करना कहां तक उचित है? आजकल नकली रेशम के वस्त्र भी बनने लगे हैं, जिनमें किसी की हिंसा नहीं करनी पड़ती ।
(6) पाट (सन) से बना वस्त्र । (1) मूंज घास, अम्बाड़ी, केतकी आदि से बना वस्त्र ।
(4) कपास के रेशे तथा आक के डोडे के रेशे का वस्त्र । इसके . अतिरिक्त नाइलोन आदि के वस्त्र रसायन विधि के द्वारा बनाये जाते हैं। नाइलोन के वस्त्रों में आग लगने से बुझाये नहीं जा सकते हैं ।