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आध्यात्मिक आलोक
भी उपहार नहीं मिल पाता । जो आपकी दया हो जाय तो हमारा दुःख दूर हो सकता है ।
मन्त्राणी विप्र की दुःखद कहानी सुनकर पसीज गई । आप पहले सुन चुके हैं कि लाछलदे बड़ी विद्या प्रेमी महिला थी । उसने मन्त्री से कहा कि विप्र को अवश्य कुछ उपहार दिया जाना चाहिए। आप मन्त्री हो आपके पास कोई अर्जी करे तो उसे निराश करना अच्छा नहीं । ब्रह्मकवि ने अपनी कविता में एक स्थान पर ठीक ही कहा है कि :
पूत कपूत, कुलच्छन नारि, लराके परोस, लजायन सारो । बन्धु-कुबुद्धि, पुरोहित लंपट, चाकर चोर अतिथि धुतारो । साहिब सूम, अराक तुरग, किसान कठोर, दीवान नकारो । ब्रह्म भषो, सुनु शाह अकबर, बारहुं बांधि समुद्र में डारो ||
मन्त्राणी की बात सुनकर महामन्त्री ने कहा- प्रिये ! यह मिथ्या दृष्टि कई कुकर्मों में लगा है । सदा अधर्म के मार्ग पर चलता है । भला ऐसे व्यक्ति को दान देने का क्या परिणाम होगा ? कहा भी है :
पयः पानं भुजंगाना, केवलं विष-वर्द्धनं । उपदेशो हि मूर्खाणां, प्रकोपाय न शान्तये ||
किन्तु आखिर मन्त्राणी की बात माननी ही पड़ी । महामन्त्री की दया से वररुचि कैसे धन पाएगा, यह तो प्रसंग आने पर विदित होगा, किन्तु हमें यहां देखना है कि मनुष्य परेशान क्यों होता है ? वह इधर-उधर हाथ पसारे क्यों फिरता है ? उसके पास विद्या, बुद्धि और वाणी का बल होते हुए भी दुःखी रहने का कारण क्या है ? इन सबका एक मात्र उत्तर यही है कि वह इच्छा के पाश में बंधा हुआ है । इच्छा मनुष्य को चारों ओर भटकाती है । कहा भी है कि :- 'जहां चाह है, वहां
राह है, यह परेश की है माया ।' बड़े से बड़ा विद्वान् भी जो कहीं बैठकर ५ १० लड़कों को ज्ञान दान देकर आसानी से अपना निर्वाह कर सकता है, चाहना के चक्कर में हाथ पसारे फिरता रहता है । इसलिए अनुभवी संतों ने कहा है :
चाह कियां कछु ना मिले, जिहां तिहां करि के देख | चाह छोड़ धीरज धरो, तो पग-पग मिले विसेख ||