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आध्यात्मिक आलोक
_105 युवा पुत्र को भेजकर मैंने बड़ी गल्ती की है । वहां जाकर पुत्र रागरंग में रंग गया, प्रेमपाश में पड़ कर जकड़ गया । वह न योग का रहा और न भोग का । यदि उसे सुसंगति में डालता तो इस प्रकार अपयश का भागी नहीं बनता और न मन ही अशान्त होता ।
। आजकल भी कई पिता अपने पुत्रों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने को विदेशों में भेजते हैं। उनका ख्याल होता है कि विदेश में होशियार होकर पुत्र अच्छी तरक्की करेगा और अपना तथा वंश का नाम फैलाएगा । परन्तु याद रखें यदि पार्मिक संस्कार का असर नहीं रहा, तो बच्चा विदेश जाकर ऐसी तरक्की करेगा कि आपकी बात भी न पूछेगा । सुरासुन्दरी के संसर्ग में पड़ कर कहीं बाप को भूल बैठा तो कौन बड़ी बात । बल्कि कुल मर्यादा को भी सदा के लिए तिलांजलि दे सकता है। अतः समझदारों को चाहिए कि वह युग प्रवाह में बहने की अपेक्षा पुत्र को सुसंस्कारों से संस्कारित बनाना न भूलें। यदि बालक को दृढ़ सुसंस्कार दिये गये तो वह विदेश जा कर भी ठगाएगा नहीं और यदि सुसंस्कार का बल नहीं रहा तो उसके भ्रष्ट हो जाने की अधिक संभावना रहती है ।
महामन्त्री शकटार पुत्र के हाथ से निकल जाने की चिन्ता में व्यग्र थे । उन्हें दुःख था कि अपने ही हाथों से अपने पुत्र को गंवा दिया । संयोगवश उसी काल में पं. वररुचि राजदरबार में उपस्थित हुए । वररुचि राजनीति, अर्थशास्त्र, काव्यकला और धर्मशास्त्र के महान् ज्ञाता थे, किन्तु अर्थहीन थे । संसार का नियम है कि “न विद्वान् धनी भूपति दीर्घजीवी" अर्थात् विद्वान् धनी और राजा दीर्घजीवी नहीं होता । अतः वे अर्थोपार्जन द्रव्य लाभ के लिए राजदरबार में आए थे । सम्राट् नन्द के दरबार में विद्वानों के यथायोग्य सम्मान की परिपाटी थी । जो जिस कला में प्रवीण होता उसमें उसका पाण्डित्य देखकर पुरस्कार देने की प्रथा थी। पण्डित वररुचि को भी राजदरबार में संस्कृत श्लोक सुनाने की अनुमति मिली । उसने भी बड़े परिश्रम से दरबार योग्य नित्य नये श्लोक बनाकर सुनाये, किन्तु राजा नन्द महामन्त्री शकटार की और देखते एवं उसके अनुमोदन के बिना किसी को कुछ भी पुरस्कार नहीं देते । इस तरह वररुचि का भी पुरस्कार रुका रहा । महामन्त्री उत्कोच लेने, मदिरा पान करने और क्लब में रंगरेलियां करने के शौकीन नहीं थे, अतएव पण्डित जी के शुभचिन्तकों ने उन्हें सलाह दी कि आप मन्त्राणी को जाकर प्रसन्न कीजिए तो कार्य सुगमता से बन जाएगा। वररुचि मन्त्राणी के पास उपस्थित हुए और उनसे निवेदन किया कि मैं
त्य प्रात एक सौ आठ नवीन श्लोक बना कर राजदरबार में उपस्थित करता है, किन्तु महामन्त्री के अनुमोदन बिना मेरा सब परिश्रम धूल में मिल जाता है और मुझे कुछ