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आध्यात्मिक आलोक
101 राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए. गांधीजी और सुभाषचन्द्र दोनों के अलग-अलग तरीके थे । लक्ष्य दोनों का एक था, पर नीति में भेद था । यदि दोनों टकरा जाते तो देश को स्वतन्त्रता नहीं मिल पाती । थोड़ा-सा भी संघ-धर्म के कमजोर हो जाने पर श्रुतधर्म और चारित्र-धर्म की ज्योति फीकी हो सकती है । एक-दूसरे के सहकार से जीवन ऊंचा उठाया जा सकता है । कुल धर्म, गण धर्म और संघ धर्म का सहारा नहीं मिलने से चारित्र धर्म पंगु एवं दुर्बल हो जाता है, वह स्थिर नहीं रह सकता । अतः साधक को मानना चाहिए कि संघ के हित में ही मेरा हित है। शासन के हित में अपना हित है, ऐसा हर एक माने तो शासन का विमल यश चमक सकता है ।
कभी संघ के सहद भाइयों में कीचड़ लगा हो, कोई चूक हो गई हो, तो उसको धोने का प्रयास करना चाहिए, किन्तु बाजार या जन-समूह के बीच कहते फिरना, पर्चेबाजी या अखबार रंगना शुद्धि का मार्ग नहीं । वह अनुचित है। ऐसे ही किसी साधक में कहीं त्रुटि हो तो उसे दबाए रखना भी भूल है । दबाने से भी सड़ान बढ़ती है । सच्चे साधक और उनके हितैषी का काम है कि दोष का अविलम्ब सरल मन से परिमार्जन करें । साधक की रक्षा और दोष का नाश ही आत्मार्थी का प्रमुख लक्षण है । चिकित्सक रोग का दुश्मन है, पर रोगी का मित्र होता है । वही दृष्टिकोण आत्म-सुधार की दिशा में भी रखा जाना चाहिए, तो शासन तेजस्वी रह सकता है।
सम्यकज्ञान, सम्यकदर्शन और चारित्र से ही व्यक्ति समाज, राष्ट्र और विश्व का कल्याण कर सकता है । स्वाध्याय ही इन सबका मूल है । इसके साधन से ज्ञान, दर्शन और चारित्र निर्मल रखा जा सकता है । अतः कहा भी है:
एक ही साघे सब सधे, सब साधत सब जाय । जो तू सींचे मूल को, फूलेहिं फलहिं अघाय ।।