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आध्यात्मिक आलोक
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स्थूलभद्र को पाकर रूपकोषा की मनोवृत्ति में परिवर्तन हो गया । अनेक नवयुवक गलत रास्ते पर चलकर मां-बाप के हाथ से निकल जाते हैं । राजनीति के अखाड़े में कूदा हुआ व्यक्ति भी घर के किसी काम का नहीं रहता और देखते-देखते लड़का "धोबी के गधे की तरह " न घर का रहता है और न घाट का । देशाटन के दीवाने बने बच्चे घर के काम नहीं आते । इस प्रकार कुमार्ग में जाने से कभी सन्तान से हाथ धो लेना पड़े तो मनुष्य सन्तोष मान लेगा किन्तु यदि वीतराग के चरणों में पड़कर कोई बच्चा कभी त्याग के मार्ग पर लगे तो मां-बाप को विचार होता है, वे नाराज होते हैं । शास्त्रज्ञान मनुष्य के मन में साधना का रूप निश्चित कर उसको परम पवित्र बनाता है। स्थूलभद्र मनहरण विद्या सीखने के लिए माता-पिता की आज्ञा से, अनिच्छावश भी रूपकोषा गणिका के घर गया । लौकिक ज्ञान की तरह माता-पिता यदि अध्यात्म ज्ञान के लिये इस प्रकार बालकों को सत्संग में लगाने का भी ध्यान रखें तो उभयलोक कल्याणकारी हो सकते हैं।