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आध्यात्मिक आलोक
व्यक्तिगत रूप से प्राप्त प्रेरणा समय पर ढीली हो जाती है । यदि कुलधर्म का पालन करने वाला व्यक्ति चारित्र-धर्म का पालन करता हो, किन्तु कुल का वातावरण गन्दा हो, पारिवारिक जन लोक-धर्म शून्य विचार के या तमोगुणी हों तो मन में विक्षेप उत्पन्न होने के कारण व्यक्ति का श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म ठीक नहीं चल सकेगा । "गृह कारज नाना जंजाला" की बातें यदि साधना के समय आवें तो आत्म-धर्म का साधन सुलभ नहीं होगा । यदि कुलधर्म में अच्छी परम्परायें होंगी तो आत्म-धर्म का पालन सरलता से हो सकेगा । जितना ही कुल, गण एवं संघ-धर्म सुदृढ़ होगा उतना ही श्रुत तथा चारित्र्य-धर्म अच्छा मिलेगा । जैसे स्वजनों की मृत्यु पर न रोना यदि किसी का व्यक्तिगत धर्म हो, किन्तु जातिधर्म में रोने का रिवाज हो, तो व्यक्ति-धर्म नहीं चलेगा । किन्तु कुछ समाजों में मृत्यु होने पर शान्त रूप में वेद-ध्वनि करते हुए शव ले जाने की परम्परा है और कई जातियों में रोते हुए आवाज मारते हुए शव को श्मशान ले जाया जाता है । यदि भगवान महावीर की वाणी की प्रेरणा को स्थायी बनाए रखना है तो संघधर्म को पक्का करना होगा | कुछ धर्मानुकूल रीति-रिवाजों को स्थान देना होगा ।
जैसे सिक्खों में दाढ़ी रखने का संघधर्म है, इसी प्रकार समाज में प्रभु स्मरण, गुरु-दर्शन एवं स्वाध्याय का दैनिक नियम बना लिया जाय, तो संस्कारों में स्थिरता आ सकती है। समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए संघ-धर्म आवश्यक है । समय रहते हमें सोचना पड़ेगा कि आचार्यों ने महावीर स्वामी की परम्परा को आज तक अक्षुण्ण रखा और शासन अबाध गति से चलता रहा, किन्तु इसके पाए (नीव) और मजबूत होने चाहिए। जिस समाज में ज्ञान और आचरण के पाए मजबूत होगे वही समाज या धर्म संसार में उत्तम है तथा वही स्थिर रह सकेगा। .
__ आचार्य देववाचक महाराज ने संघ को रथ की उपमा दी है। लम्बी यात्रा में रथ या वाहन का सहारा लेना पड़ता है। हमारी जीवन-यात्रा लम्बी और उलझनों से भरी हुई है । हमें शिवनगरी तक यात्रा करनी है। जब छोटी-सी यात्रा में वाहन, एवं अन्य आवश्यक सामग्रियों की आवश्यकता रहती है, तब शिवनगरी तक पहुँचने के लिए भी वाहनादि साधनों की नितान्त अपेक्षा रहेगी । भगवान महावीर स्वामी ने कहा कि संघ ही रथ है, जो हमें मुक्ति तक पहुंचने में सहायता पहुँचाएगा.। रथ में मंगल तूर्य होता है । संघ रथ का मंगल तूर्य स्वाध्याय का नन्दिघोष है । आगे.फिर प्रभु ने कहा-हे संघ रथ ! तेरे ऊपर शील की पताका फहरा रही है और तप एवं नियम रूप दो मजबूत घोड़े जुते हैं ।