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[१९] साधना की पाँखें
संसार का अनादि से नियम है कि हर वस्तु पर उत्कर्ष और अपकर्ष का चक्र घूमता रहता है । चेतन द्रव्य और धर्म भी इससे अछूते नहीं रहते । गुणों की अपेक्षा आत्मा का भी उत्कर्ष एवं अपकर्ष होता रहता है । धर्म भी आविर्भाव और तिरोभाव के कारण उन्नत, अवनत हुआ कहलाता है। फिर भी इतना निश्चित है कि नरेन्द्र हो या सुरेन्द्र, जब तक धर्म की शरण नहीं ली जाती, आत्मा को सच्ची शान्ति प्राप्त नहीं होती । वस्तुतः धर्म की शरण में ही शान्ति का अनुभव होता है । अतः हम सब की एक ही आवाज होनी चाहिए । 'धम्म सरणं पवज्जामि ।'
धर्माराधन में अर्थनीति, राजनीति या भोग का आकर्षण नहीं है । वर्तमान में शान्तिलाभ और जीवन-निर्माण ही इसके प्रमुख आकर्षण हैं | वे सभी प्रकार की साधनाएं धर्म के नाम से कही जा सकती हैं जिनसे कि मन को विशुद्ध शान्ति प्राप्त हो । महात्माओं की सत्संगति में लोग इसीलिए आते भी हैं किन्तु पुरुषार्थ के अभाव में आज हमारा श्रुत-बल एवं चरित्र बल गिर गया है । इसीलिए आज हम आकुल हैं। श्रुत-धर्म के द्वारा ही सत्शास्त्र की उपासना होती है । जहां श्रुत-धर्म न हो, भला वहां चारित्र-धर्म के स्थिर होने की संभावना कैसे होगी?
जैसे गगन विहारी पक्षी को दो पंख आवश्यक होते हैं, वैसे ही धर्म के भी मुख्य दो अंग हैं-श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म । छोटे पतगे के भी दो पंख होते हैं । एक भी पंख कटने पर पक्षी उड़ नहीं सकता | फिर मनुष्य को तो अनन्त ऊर्ध्व आकाश को पार करना है, जिसके लिए श्रुत और चारित्र-धर्म ही साधन हैं । आत्महितैषी मानव कुलधर्म-गुणधर्म और संघधर्म को पालन करते हुए श्रुतचारित्र धर्म की साधना करे, यह आवश्यक है । यदि कुल का भय होगा तो मनुष्य चारित्र से हीन नहीं होगा । जो रीति-रिवाज समाज को व्यवस्थित रखे और जिससे संघ या समाज की उन्नति हो उसे संघधर्म कहते हैं ।