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आध्यात्मिक आलोक
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कामना पर विजय प्राप्त करते हुए मन, वचन, और कार्य से स्थूल हिंसा करने एवं कराने का त्याग कर लिया । हर एक पाप तीन प्रकार से होता है, करना, कराना
और करने वाले को प्रोत्साहित करना, उसकी प्रशंसा करना । मनुष्य स्वयं पाप करता है, उसकी अपेक्षा सैकड़ों गुणा अधिक कराता व अनुमोदन करता है । अतः अनुमोदन नहीं त्यागने की स्थिति में भी करने कराने का त्याग आनन्द ने किया।
परिहार्य और अपरिहार्य रूप दो प्रकार की हिंसा में श्रावक को परिहार्य के बाद अपरिहार्य त्याग का भी धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाना चाहिए । यह पहला व्रत है।
- इसके बाद साधना-क्षेत्र में दूसरा स्थान सत्य का आता है । साधना में अहिंसा अगर वायु की तरह है तो सत्य को भी पानी की तरह प्राण-रक्षक समझना चाहिए । सत्य से विचलित होने पर कोई भी साधना सफल नहीं होती । मगर पूर्वाचार्यों ने बतलाया है कि अहिंसा के पालन में सत्य आदि व्रत स्वयं आ जाते हैं। क्योंकि जहां हिंसा है, वहां सत्यादि व्रत नहीं रह सकते और जहां असत्य, कुशील आदि हैं, वहां अहिंसा भी सुरक्षित नहीं रहती।
. झूठ, चोरी एवं कुशील आदि भी एक प्रकार से हिंसा है, देखिए-झूठ बोलने वाला अपनी हत्या करता है, क्योंकि सत्य बोलना आत्मा का स्वभाव है और इस दृष्टि से झूठ बोलना उसकी हत्या हुई । फिर नकली को असली और असली को नकली बना कर कहने वाला मिथ्याभाषी, पदार्थ के सही रूप का भी हनन करता है। अतः झूठ बोलने वाला वाणी से हिंसा का कारण बनता है।
स्थूल और सूक्ष्म भेद से असत्य-झूठ भी दो प्रकार का है । साधक के लिए यदि सर्वथा त्याग संभव न हो तो भी उसे स्थूल असत्य का त्याग कर मर्यादा तो करनी होगी, उस को ऐसे झूठ से बचना होगा जिससे कि दूसरे की हानि होती हो।
संसार के सभी धार्मिक सम्प्रदायों ने एक स्वर से हिंसा की तरह झूठ को भी त्याज्य माना है । जगत् में लाखों का लेन-देन सत्य से होता है । यदि भरोसा नहीं निभाया गया तो मनुष्य विश्वासघाती समझा जायगा और झुठ से उसका विश्वास समाप्त हो जायेगा । इसलिए सदगृहस्थ को स्थूल असत्य से अवश्य बचना चाहिये ।
सत्य एवं सदाचार की पालना में सत्संग की तरह बाल्यकाल के संस्कारों का भी बड़ा हाथ होता है, संस्कार का प्रभाव देखने के लिए प्राचीन इतिहास देखिये
एक साधु को एक बार एक सजीव भिक्षा (बालक की भिक्षा) प्राप्त हुई । साधु ने भिक्षा लाकर भिक्षा-पात्र गुरु को दिया, पात्र भारी था, अतएव उस बालक