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[ १७ ] इच्छा नियम
श्रावक धर्म की साधना करने वाले गृहस्थ आनन्द ने पांच मूलव्रतों के पालन का नियम लिया। इन मूलव्रतों का नाम अणुव्रत भी है। अन्य व्रतों का पालन अवसर के अनुसार किया जाता है, किन्तु मूलव्रतों को हमेशा धारण करना पड़ता है। पदार्थों की संख्या घटाने से इच्छा घटती है और इच्छा के घटने से संसार का चक्कर घटता है। केवल बाहरी वस्तु के परिमाण करने से काम नहीं चलता। यह तो इच्छाओं को सीमित करने की एक साधना मात्र है। साधना-क्षेत्र में बाह्य और आन्तरिक परिसीमन की नितान्त आवश्यकता है तथा दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है।
आनन्द ने 400 हल परिमाण की भूमि रखी, वह अर्थ-संचय के लिए काश्त नहीं करता, वरन अपने परिवार तथा स्वाश्रित पशुओं के गुजर-बसर के लिए करता था । आनन्द के यहां विशाल जन-मंडली थी इसलिए उसको सामग्री ढोने तथा सवारी के लिए वाहन एवं आदमी की भी आवश्यकता निरन्तर बनी रहती । पांच पांच सौ गाड़िया एक देश से दूसरे देश माल ले जाने के लिए तथा पांच सौ घरेल भार ढोने के लिए एवं गमनागमन के लिए पांच-सौ शकट उसके यहां उपयोग में आते थे । आनन्द ने इनसे अधिक नहीं बढ़ाने का संकल्प कर लिया। . .
मनुष्य इच्छाओं का दास बन कर कभी वास्तविक शान्ति को प्राप्त नहीं कर पाता । सरित लहर की तरह इच्छाओं की लहरें भी निरन्तर एक के बाद दूसरी उठती रहती हैं । जागृत दशा की कौन कहे, इच्छा स्वप्न में भी नर को मर्कट नाच नचाती रहती है । जब तक इच्छा पिशाचिनी पर नियन्त्रण न किया जाय, तब तक सुखशान्ति की प्राप्ति असंभव है । इच्छा पर जितना ही साधक का नियन्त्रण होगा उतना ही उसका व्रत दीप्तिमान होगा । इच्छा की लम्बी-चौड़ी बाढ़ पर यदि नियन्त्रण नहीं किया गया तो उसके प्रसार में ज्ञान, विवेक आदि सद्गुण प्रवाह-पतित तिनके की तरह बह जायेंगे।