________________
72
आध्यात्मिक आलोक कुशील की मर्यादा के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से अनेक रूप हैं। अपने स्त्री पुरुष का परिमाण यह द्रव्य मर्यादा है, क्षेत्र.से विदेश का त्याग करना, काल से दिन का त्याग और रात्रि की मर्यादा, भाव से एक करण एक योग आदि रूप से व्रत की मर्यादा होती है । प्राचीन काल में सामान्य जन भी पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन की मर्यादा रखते थे। उस समय भारत वर्ष में आश्रम व्यवस्था चल रही थी। किन्तु आज स्थिति बदली हुई है । उत्तेजक वस्तुओं के भोजन और श्रृंगार प्रधान वातावरण में रहने के कारण बच्चों में काम-वासना शीघ्र जागृत होती है । परिस्थिति को ध्यान में लेकर ही जैन शास्त्र में अवस्था का नियम नहीं बताया । क्योकि शरीर वृद्धि में जल, वायु, वातावरण तथा वंश आदि का भी प्रभाव पड़ता है । उष्ण प्रदेश में असमय में ही बालक बालिकाएं यौवन धारण करते दिखाई देते हैं और इस स्थिति में उनको संभालकर चलाना भारी लगने लगता है।
जब जीवन में तरुणाई अंगडाई लेने लगे और मन की गति मृग सम चंचल बन जाय तब ऐसे ही नाजुक क्षणों में तरुणाई को कुवासनाओं से बचाने की जरूरत रहती है । प्रमादवश यदि एक बार भी वे गलत मार्ग पर लग गए तो फिर उससे उनका पिण्ड छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा।
जब शरीर पूर्ण विकसित होकर अंग प्रत्यंग जागृत एवं पुष्ट हो जाते थे तभी प्राचीन काल में विवाह की स्थिति समझी जाती थी । इससे तरुणों या तरुणियों को बहकने का अवसर नहीं मिल पाता और वे अपनी कामवासना को अपने तक ही सीमित कर अनर्थ एवं अधर्म से भी बच पाते थे । प्रागैतिहासिक काल तकं २५ वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालना मामूली सी बात मानी जाती थी और उसका पालन ऐतिहासिक काल तक भी चलता रहा । शादी के पश्चात् दुबारा जब बालिका का ससुराल में पुनरागमन होता, तब उसे उत्सव माना जाता था । परन्तु दुर्भाग्य या तरक्की की बात यह है कि आजकल शादी के प्रथम वर्ष में ही लड़की मां तथा लड़का बाप बनने का सौभाग्य प्राप्त कर लेता है और जो जल्द नहीं बन पाते उनके मां बाप उनके लिए देवी-देवता की मिन्नतें मनाने लग जाते हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि दोनों का शरीर असमय में ही बिगड़ जाता है। उनसे पैदा होने वाली संतान भी किसी काम की नहीं रह पाती ।
आज के लोगों का आहार-विहार नियन्त्रित नहीं है । सदाचार को भूल जाने से मानव अपने को पद-पद पर पीड़ित और व्याकुल अनुभव कर रहा है । उत्साह, उमंग और उल्लास आदि प्रमोदकारी तत्वों का जिनसे जीवन में जान आती है आज सर्वथा अभाव देखा जा रहा है | तरुणाई में ही बुढ़ापा झांकने लगता है तथा शरीर रक्त-हीन एवं निस्तेज प्रतीत होता है | आज के भारतीय तरुण की