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आध्यात्मिक आलोक शारीरिक दुर्दशा देखकर सचमुच में दया आती है, जो समय से पहले ही कुम्हलाया और मुझया सा लगता है। एक उर्दू के शायर ने ठीक ही कहा है -
फूल तो दो दिन बहारें, जां फिजां दिखला गए ।
हसरत उन गुंचों पै है, जो वे खिले मुरझा गये ।। यदि मानव का आहार विहार ठीक हो, तो उसमें विषमता नहीं आ सकती तथा शरीर के क्षीण होने की भी संभावना नहीं रहती । जिनमें ब्रह्मचर्य का तेज रहेगा, वे निश्चय ही आनन्दमय जीवन व्यतीत करेंगे।
. मनुष्य के शरीर में वीर्य ही वास्तव में तेज या बल है । जब तक शरीर में यह बना रहता है तब तक एक प्रकार की दीप्ति मुख मंडल पर छायी रहती है और शरीर अंगूर की तरह दमकता रहता है । वीर्य के अभाव में शरीर कुछ और ही हो जाता है । वस्तुतः वीर्यनाश ही मृत्यु और वीर्य धारण ही जीवन है । कहा भी है
___"मरणबिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्” ।
अर्थात बिन्दु भर वीर्य का पात मरण तथा बिन्दु भर वीर्य का रक्षण ही जीवन है । शरीर शास्त्रियों का कहना है कि प्रतिदिन सैर भर पौष्टिक भोजन खाने । वाला मनुष्य ४० दिनों में डेढ़ तोला वीर्य संचय करता है । आज साधारण मनुष्य को खाने के लिए दूध, घी सरीखा पौष्टिक पदार्थ तो दूर रहा, दो बार पेट भरने को साधारण अन भी नहीं मिलता | ऐसी सामान्य खुराक में ४० दिनों में कितना वीर्य संचित होगा ? यह सोचने की बात है ।
यदि एक बार भी पुरुष स्त्री का संग करे तो चालीस दिनों का संचित वीर्य समाप्त हो जाता है। शरीर की इतनी बहुमूल्य वस्तु के विनाश का यह क्रम चलता रहा तो शरीर की गाड़ी कैसे और कब तक चलेगी? यह बाल जीवन के वीर्य रक्षण का ही परिणाम है कि गाड़ी धक्के खाकर भी चलती रहती है।
__यूनान के महा पण्डित एवं अनुभवी शिक्षक सुकरात ने अपने एक जिज्ञासु भक्त से कहा था कि मनुष्य को जीवन में एक बार ही स्त्री समागम करना चाहिए। यदि इतने से कोई नहीं चला सके तो वर्ष में एक बार और यदि इससे भी काम न चले तो मास में एक बार । जिज्ञासु ने पूछा - अगर इससे भी आदमी काबू नहीं पा सके तो क्या करे ? उत्तर मिला - कफन की सामग्री जुटा कर रखले, फिर चाहे जितना भी समागम करे ।
__यह तो शरीरिक दृष्टिकोण से विचार हुआ | आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने पर ब्रह्मचर्य का महत्व अनन्त एवं उपादेय रूप है । ब्रह्मचर्य व्रत, सेना में