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परिग्रह संसार में जितने प्राणी हैं, उनमें से कोई भी दुःखमय जीवन जीना नहीं चाहता । फिर मनुष्य का तो कहना ही क्या ? वह तो संसार का सबसे बढ़कर बुद्धिमान प्राणी है । फिर भी देखा जाता है कि अज्ञानवश वह दुःख के मार्ग पर स्वयं चलता रहता है । दूसरों को दुःख में पड़ा देख कर भी मनुष्य उनसे सीख ग्रहण नहीं कर पाता तथा उन्ही कारणों को स्वयं अपनाता है जिनसे उसके दुःख घटने के बजाय बढ़ते रहते हैं । सम्यग्ज्ञानपूर्वक चारित्र से दुःख के इस बन्धन को काटा जा सकता है । सदज्ञान प्राप्ति के लिए सद्गुरु की शरण और अटूट लगन की जरूरत रहती है । संसार में मोह का सबसे बड़ा रूप लोभ है जो कि मानव की आंखों में अहर्निश समाया रहता है । संसार के सकल अनर्थों की जड़ यही लोभ है जो सतत सबको नचाता रहता है । यदि मनुष्य अपने बढ़ते परिग्रह पर नियन्त्रण कर ले तो वह स्वयं को सुधार कर दूसरों को भी आसानी से सुधार सकता • है और कर्म के भार से हल्का हो सकता है । जब तक हृदय में मोह है तब तक
सद्ज्ञान की स्थिरता असंभव है । अगर लोभ से सर्वथा पिण्ड छुडाना कठिन है तो उसकी दिशा बदली जा सकती है और उसे गुरुसेवा या जप-तप तथा सद्गुणों की
और मोड़ा जा सकता है । ऐसा करने पर परिग्रह का बन्धन भी सहज ढीला हो सकेगा।
साधारणतः मानव मोह का पूर्णरूप से त्याग नहीं कर सकता, पूर्ण अपरिग्रही नहीं बन सकता तो क्या वह उस पर संयम भी नहीं कर सकता ? ऊंची डालियों के फूल हम नहीं पा सकते तो क्या नीचे के कांटो से दामन भी नहीं छुड़ा सकते ? अवश्य छुड़ा सकते हैं । जब शरीर के किसी अंग में अनावश्यक मांस-वृद्धि हो जातीहै तो उससे शारीरिक कार्यों में बाधा पड़ती है । उस बाह्य वृद्धि को पट्टी बांधकर या अन्य उपचार के द्वारा रोकना पड़ता है, सीमित करना पड़ता है वैसे ही बढ़ा हुआ परिग्रह भी अच्छे कार्यों में - साधना में बाधक होता है । अतः उस पर