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आध्यात्मिक आलोक अनियन्त्रित लोभ या क्रोध व्यावहारिक जीवन को कटु बना देता है और वैसी परिस्थिति में साधक का लोक-जीवन भी ठीक नहीं बन पाता । वह माता-पिता, परिजन एवं बन्धु-बान्धव आदि के प्रति भी ठीक व्यवहार नहीं रख पाता । वस्तुतः लोभ व लालसा आदि पर अंकुश लगाने वाला ही जीवन में सुखी बनता है । सन्त की तरह सर्वथा परिग्रह-मुक्त नहीं होने की स्थिति में भी गृहस्थ को परिग्रह साध्य के रूप में नहीं, वरन् साधन के रूप में मानना चाहिए । परिग्रह कमजोर अवस्था में लिए गए लाठी के सहारे के समान है । जैसे कमजोर व्यक्ति बल आते ही लाठी को हटा देता है, वैसे ही ज्ञानी गृहस्थ परिग्रह को सहारा मानता और संयमित कर उसे उपधि-उपकारी बना कर समय आते ही छोड़ देता है।
व्यवहार में लोक, आनन्द को महापरिग्रही और एक भिखारी को अल्पपरिग्रही. कहेंगे, परन्तु प्रभु कहते हैं-अल्पपरिग्रह और महापरिग्रह का मापदण्ड निराला है । जिसके पास कुछ नहीं पर इच्छा बढ़ी हुई है, तृष्णा असीम है, तो वह महापरिग्रही है
और करोड़ों की सम्पदा पाकर भी जिसकी इच्छा पर नियन्त्रण है, चाह की दौड़ घटी हुई है, वह अल्पपरिग्रही है । चेडा राजा और आनन्द आदि श्रावक इसी श्रेणी के पुरुष हैं।
आनन्द ने स्थावर और जंगम दोनों प्रकार के परिग्रहों का परिमाण किया । उसने सोना, चांदी आदि जड़ तथा गोधन, बाजिधन एवं अन्य चतुष्पद धनों को भी संयमित कर लिया। बारह करोड़ की सम्पदा, चालीस हजार पशु और ५०० हल के परिमाण से अधिक भूमि का त्याग कर दिया । बाह्य परिग्रह नव प्रकार का है, जैसे क्षेत्र और घर-प्रासादादि१२ सोना एवं चांदी ३४ धन-मणि-मौक्तिक मुद्रा और धान्य ५६ दास दासी और पशु-पक्षी ७-८ और घर का सामान ९ इन सबका परिमाण करके उसने सीमित कर लिया । इसीलिए उसका परिग्रह अल्पपरिग्रह कहा गया । परिग्रह परिमाण के उसके तीन प्रयोजन थे १ इच्छाओं के बढ़ते वेग पर नियन्त्रण करना, स्वैर-विरोध का कारण घटाना | साधना में आने वाले विक्षेप को घटाना । मानसिक शान्ति बढ़ाना और साधना के विक्षेप को दूर करना ।
इच्छाओं को सीमित किए बिना साधना की और चरण नहीं बढ़ेगा और मानव-जीवन कीट पतंगों की तरह छटपटाता रहेगा । यदि मनुष्य ने अपना जीवन पेट भरने के धधे में ही बिता दिया तो समझना चाहिए कि उसने नरभव को महत्वहीन बना लिया । कहा भी है
हँस के दुनिया में मरा कोई, कोई रोके मरा । जिन्दगी पायी मगर, उसने जो कुछ होके मरा ।। .