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साधना का बाधक तत्वः असत्य
साधना के क्षेत्र में कुछ साधक और कुछ बाधक कर्म होते हैं । यदि साधक, साधक कर्म को स्वीकार करे तो सुख शान्ति और बाधक कर्म करे तो दुःख
और अशान्ति होती है। शास्त्र की भाषा में इसी को उपादेय और हेय कहते हैं। बाधक कर्मों में अनेक विकार रहते हैं, जो साधना में व्यवधान रुकावट उपस्थित करते हैं, जिनमें भय और लोभ ये दो प्रमुख हैं ।
ये दोनों विकार साधना के क्षेत्र में साधक को आगे बढ़ने से रोकते हैं। परमार्थ की साधना तो बहुत ऊंची है, किन्तु व्यवहार साधना में भी ये दोनों बाधक हैं। यदि कोई लोभवश अर्थ संचय करना चाहे तो उसे भी भय का सामना करना पड़ता है और अर्थ संचय के बाद भी जीवन भर उसके संरक्षण का भय तन-मन पर सवार रहता है, फिर भी भय जीतना आसान है किन्तु लोभ को जीतना उतना आसान नहीं है । लोभाधीन प्राणी मौत का भी मुकाबिला करते देखा जाता है ।
बड़े बड़े महाजन लोभ के वशीभूत होकर सब कुछ बर्बाद कर लेते हैं और पीढ़ियों की कमाई हुई अतुल धनराशि लोभ की वेदी पर भेंट चढ़ा कर, फकीर हो जाते हैं। इस सम्बन्ध के सैकड़ों उदाहरण आप सब के सामने होंगे कि किस तरह रोज घर में दीवाली जलाने वाले जन लोभवश सट्टे और जुए में अपना दिवाला निकाल लेते हैं तथा ऊँचे ऊँचे महलों में रहने वाले प्रियजनों को भी झोपडी में रहने को विवश कर देते हैं।
अतएव भगवान् महावीर स्वामी ने कहा-कामना को वश में करो । कामना के कारण ही मनुष्य विविध जन्म-मरण करता और अनचाहे भी दुःख प्राप्त करता है | कामना पर विजय ही दुःख पर विजय है । जैसा कि शास्त्र में कहा है'कामे कमाहि, कमियं खु दुक्खं ।' कामना की विजय दुष्कर प्रतीत होती है। आनन्द ने