________________
68
आध्यात्मिक आलोक
जायं, तो निश्चय ही सहज रूप में होने वाले बहुत से पाप कर्म नहीं हो पाएंगे और रौरव रूपा आज की यह धरती, स्वर्ग के समान सुन्दर बन जाएगी ।
आनन्द की तरह जगत् के सभी गृहस्थों को अपनी मर्यादा बांध लेनी चाहिए । कोई भी वस्तु मर्यादा बांधी जाने पर ही हितकर और सुखकर हो सकती है । भोजनादि भी मर्यादित समय पर ही अच्छे और हितावह हो सकते हैं, मर्यादा हीन उच्छृंखल मन बेलगाम घोड़े की तरह पाप कर्मों की ओर दौडता फिरेगा और सुलभता से उसमें रमण करेगा । फिर तो लक्ष्य की प्राप्ति असम्भव हो जाएगी । क्योंकि सन्त या भगवान् के निकट मनुष्य तभी पहुँच सकता है जब वह जीवन में पाप कर्मों का त्याग करेगा ।
देश विरति श्रावक धर्म, पूर्ण त्याग रूप श्रमण धर्म की ओर अग्रसर होने की भूमिका है । श्रमण धर्म की साधना के ज्वलन्त उदाहरण आपके सामने हैं । आचार्य संभूतिविजय और उनके मुनि संघ ने कितने कष्ट सहे तथा बतला दिया कि विकारों के साथ जूझना सत्पुरुषों का काम है । पामर मनुष्य जहां आपस में लड़कर संसार को रौरव बनाते, वहां ज्ञानी क्रोध, लोभादि विकारों से जूझते हैं, चाहे कितनी ही कठिनाई क्यों न आवे, वे पीछे नहीं हटते। कहा भी है
सूरा चढ़ संग्राम में, फिर पाछो मति जोय । उतर जाय चौगान में, करता करै सो होय ||
शास्त्रकारों ने चार बातें दुर्जय बतलाई हैं । जैसे
अक्खाण सणी, कम्माण, मोहणी तह वयाण बंभवई । गुत्तीण य मण गुत्ती, चउरो दुक्खेण जिप्पति ।। ( दशाश्रुतस्कंध )
पांच इन्द्रियों में रसना, आठ कर्मों में मोह, तथा व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत और गुप्तियों में मन गुप्ति को वश में करना कठिन है, अतः ये दुर्जय हैं। शेर, हाथी और शत्रु के कष्टों को सहन करने वाला पुरुष वीर कहलाता है किन्तु मन की गति राकेट और तीव्रगामी यानों की गति को भी मात करने वाली है । इसीलिए कवि ने कहा है
सब कर्मों में मोह कर्म का, विजय कठिन बतलाया है । काम वासना को जीते वह बड़ा शूर कहलाया है ।। हरि करि अरि के कष्ट सहे, वह दुष्कर कर्म कहाता है । मोह जीतने वाला साधक, महावीर कहलाता है ||