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[१३ ] साधना के दो मार्ग
• सन्तों का जीवन जगत् में पूर्ण शान्ति का जीवन है । वे संसार में रहते हुए भी, कामनाओं से सदा अलग-थलग रहते हैं । प्रपन्चों के बीच जम कर भी, उनसे अछूते रहते हैं। कर्म उन्हें बाँधने में असमर्थ हैं, माया उन्हें लुभाने में असफल. है । मदिरा का ठेकेदार जैसे सैंकड़ों हजारों लोगों को अपने यहां मदिरा पीते देखकर भी मस्त नहीं होता, क्योंकि जो उसे ग्रहण कर पीता है वही नशे में चूर होता है । ठेकेदार विक्रय करते हुए भी उसका पान नहीं करता, अतएव उसे मादकता नहीं सताती । ऐसे ही निर्मोही सन्त और संसारी दोनों के सामने कर्म परमाणु फैले हुए हैं, वीतराग सन्त उसके जाल में नहीं फंसते और संसारी उस जंजाल में उलझ कर बंध जाता है । अतः सन्त कर्मों से अलिप्त और शान्त रहते हैं, जबकि संसारी लिप्त तथा अशान्त ।
भगवान महावीर स्वामी कहते हैं कि मनुष्य यदि अज्ञान का पर्दा हटाकर विवेक से काम ले तो उसे शान्ति और आनन्द कहीं अन्यत्र खोजने की जरूरत नहीं होगी, वह स्वयं शान्ति और आनन्द का धाम बन सकता है | कर्मों का जंजाल ही उसे ऐसा होने में बाधक बनता है।
आनन्द धाम की प्राप्ति के दो साधन-एक श्रमण धर्म और दूसरा श्रावक धर्म । पहला मार्ग पूर्ण त्याग और संयम का है । इसका पालन वही कर सकता है जो कबीर के शब्दों में घर जलाकर तमाशा देख सकता है अथवा सर को हथेली में रखकर घूम सकता है या कि दहाड़ते सिंह के खुले जबड़े में हाथ डालने की हिम्मत रखता है। मतलब यह कि जिसमें अपूर्व साहस, शौर्य और सहनशीलता नहीं होगी, वह इस असिधारा व्रत का पालन नहीं कर सकता । कदाचित् आवेश में आकर कोई ग्रहण भी कर ले.तो बराबर उस पर कायम नहीं रह सकता !