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आव्यात्मिक आलोक
अकेले नहीं घूम सकते । उनके मन में शंका लगी रहती है, मगर जिसके मन में अहिंसा की भावना है, वह अकेले भी जगत् में घूम-फिर सकता है । गांधीजी हिन्दू-मुस्लिमदंगे के समय में भी नोआखाली आदि पाकिस्तानी क्षेत्रों में घूम गए । कारण स्पष्ट है कि उनके मन में अहिंसा की पवित्र भावना थी, अतः वे सर्वत्र निर्भय रहते थे।
आचार्य पातंजलि ने योग दर्शन में साधना के मार्ग में यम का लक्षण बतलाते हुए कहा है-'अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः ।' फिर अहिंसा की महिमा बताते हुए आप कहते हैं कि जिसके मन में अहिंसा की प्रतिष्ठा हुई हो, उसका किसी से वैर-विरोध नहीं रहता और भयंकर प्राणी भी उसके सामने वैर-भाव भूल जाते हैं जैसे कि
"अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः " योग. । साधु वन-भूमि में हिंसक पशुओं से घिर कर तपस्या करते हैं । इन साधु संतों के पास अहिंसा का ही बल है। पूर्ण अहिंसक के शरीर पर सर्प, बिच्छू आदि विषैले जीव-जन्तु भी अपना विष नहीं लगाते । धार्मिक साधना में अहिंसा के द्वारा ही लोगों का दिल जीता जा सकता है । गृहस्थ भी यदि अहिंसा का व्रत धारण करे तो उसका कौटुम्बिक जीवन मधुर बन सकता है ।
अहिंसा का क्षेत्र बड़ा ही व्यापक है । शरीर से नहीं मारना तक ही अहिंसा सीमित नहीं है । मंत्र द्वारा दूसरे को हानि पहुँचाना, जादू-टोना करना, कटुवाणी का प्रहार कर ठेस पहुँचाना ये सब भी हिंसा के ही रूप हैं । यदि कोई किसी की कटुवाणी या छींटाकशी से उत्तेजित होकर आत्म-हत्या कर ले, तो
आत्मघाती के साथ-साथ छींटाकशी करने वाला भी पातकी होगा । अतएव खूब ध्यानपूर्वक हिंसा के पाप से बचने का प्रयत्न करना चाहिए । आनन्द श्रावक ने प्रभु से कहा कि मैं ऐसी स्थूल हिंसा स्वयं नहीं करूंगा और न कराऊंगा ही । मन, वाणी एवं शरीर तीनों से स्थूल हिंसा का त्याग करता हूँ।
संयमित जीवन का अर्थ साधना को ऊपर बढ़ा ले जाना है। मगर जो साधना ऊपर बढ़ने के बजाय अधोगामिनी हो, उसे साधना कहना साधना शब्द के महत्व को घटाना है । अब जरा पूर्ण साधक की जीवन झांकी प्रस्तुत करते हैं-भद्रबाहु । वे पूर्ण त्यागी थे । उनकी सत्यवादिता के चमत्कार से अपमानित वराहमिहिर के हृदय में आकुलता भर गई और वह प्रतिशोध के लिए प्रज्वलित हृदय हो गया, आर्तध्यान में प्राण त्याग कर वह व्यन्तर देव बना और प्रतिशोध की भावना से पाटलिपुत्र के संघ में प्लेग, हैजा का जन संहारक रोग फैलाने लगा | जब भद्रबाहु