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आध्यात्मिक आलोक
प्रथम तो प्रिय धन सब ही को, द्रव्य से सुत लागे नीको । पुत्र से वल्लभ तन जानो, अंग में अधिक नयन मानो ।। दोहा - नयन आदि सब इन्द्रियन, अधिक पियारे प्राण ।
या कारण कोई मत करो, पर प्राणन की हान । बुरी है जग में बेईमानी, दयापालो बुधजन प्राणी ।
स्वर्ग अपवर्ग सौख्यदानी । जीव को अपना जीवन सबसे प्यारा होता है । अपनी जानके आगे वह किसी की भी परवाह नहीं करता।
एक जगह की बात है कि एक सेठजी को चौथेपन में पुण्य योग से एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ | पुत्र का बड़े ठाठ से लालन-पालन हुआ । एक दिन सेठ कहीं बाहर गए हुए थे कि उनके घर में अचानक आग लग गई और बच्चा घर के भीतर पालने में ही रह गया घर के सब लोग जल्दी में बाहर हो गए । बच्चे की याद आयी तब तक तो घर में चारों ओर आग फैल गई थी और जोरों की ज्वाला निकल रही थी।
जब सेठ को पता चला तो उसने, बच्चे को बचाने के लिए बहुत धन देने का निर्णय किया, किन्तु धन के लिए जान पर खेलने वाला व्यक्ति उस जगह नहीं मिल सका । सेठ बच्चे के लिए छाती पीट कर रो रहा था । सेठ की व्याकुलता देखकर किसी व्यक्ति ने कहा कि सेठजी । स्वयं ही भीतर जा कर बच्चे को क्यों नहीं निकाल लाते हो? यह सुनकर सेठजी बोले कि यदि बचाने के बदले मैं स्वयं जल जाऊं तो..."! यदि मैं ही नहीं रहा तो पुत्र-मुख दर्शन का सुख कौन देखेगा? नीति में भी तो कहा है -
____ आत्मानंसततंरक्षेत्, दारैरपि धनैरपि ___ इस दृष्टान्त से तात्पर्य यह है कि सम्पदा, और पुत्र आदि से, हर एक मनुष्य को अपना जीवन अधिक प्यारा है । अतः आत्मवत् मान कर किसी के भी प्राण को खतरे में डालना महान् घातक व बड़ा पातक है।
. हिंसा करने वाले मनुष्य को हमेशा चिन्तित रहना पड़ता है । सताए गए व्यक्ति से प्रतीकार पाने की भावना भी मन को कचोटती रहती है । क्योंकि हिंसा प्रति हिंसा को उत्पन्न करती है, जो मनुष्य के लिए चिन्ता का कारण है । आप जानते हैं एक साधारण व्यक्ति कहीं भी स्वतन्त्रता पूर्वक भ्रमण कर सकता है । उसे किसी भी बात की चिन्ता नहीं होगी, किन्तु देश के प्रधानमन्त्री या बड़े-बड़े पदाधिकारी