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[१०] अहिंसा का आलोक
अनन्त-काल से संसार का प्राणी कर्मपाश में बंधा हुआ है । जिससे वह अपने ज्ञानादि गुणों का पूर्ण प्रकाश नहीं फैला सकता । कर्म बन्ध की अनादिता से प्रश्न होता है कि जब कर्म अनादि है तो फिर मनुष्य की मुक्ति कैसे हो?
__यहाँ समझने की बात है कि सम्बन्ध दो प्रकार के होते हैं एक संयोग सम्बन्ध और दूसरा समवाय सम्बन्ध । एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ सम्बन्ध अथवा आत्मा का कर्म के साथ सम्बन्ध, यह संयोग सम्बन्ध है और आत्मा का ज्ञान आदि निज गुण के साथ सम्बन्ध समवाय है, इसमें से पहले का सम्बन्ध अनादि होकर भी सान्त है, जबकि दूसरे का अनादि अनन्त सम्बन्ध है न उसका संयोग है और न
वियोग ।
किसी को यदि योग्य निमित्त मिल जाय और उसमें उचित पुरुषार्थ हो तो आत्मा के साथ जो कर्म का सम्बन्ध है, उसका वियोग भी कर सकता है । जैसे सुवर्ण और धूलि का सम्बन्ध अनादि से होने पर भी रासायनिक प्रयोग से सोना शुद्ध होता है । मिट्टी में मिला हुआ भी जल शुद्ध किया जाता है वैसे ही आगंतुक कारणों को रोक कर कर्म का भी अन्त किया जाता है । कर्म भी प्रवाह की अपेक्षा अनादि और स्थिति की अपेक्षा सादि है । जैसे छने जल के पात्र को ढंक दिया जाय तो नया मैल नहीं आता फिर वाष्प नलिका में फिल्टर कर उसे पूर्ण शुद्ध कर लिया जाता है । ऐसे ही व्रतों के द्वारा पापों का आगमन रोक कर तप एवं ध्यान से कर्म-मल का सर्वथा अन्त भी कर लिया जाता है।
कर्म के अणु संसार में चारों ओर भरे पड़े हैं, जब आत्मा उन्हें ग्रहण करती है तो वे उस-उस परिणति के अनुकूल फल देते हैं, जैसे भावावेश में आकर कोई भंग पी लेता है तो उसके दिल-दिमाग सब मस्ती से आवृत्त होकर कुछ और ही