Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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माता
तरा०
| विपरीत ज्ञान वा संशयज्ञान नहीं बन सकता क्योंकि एक समयमें एक ही अर्थको विषय करनेवाला |3||
| ज्ञान जिस समय स्थाणुको विषय करेगा उस समय पुरुषको विषय नहीं कर सकता और जिस समय || ६७ पुरुषको विषय करेगा उस समय स्थाणुको विषय नहीं कर सकता किंतु जहाँपर स्थाणु और पुरुष दोनों
के भेदका ज्ञान होगा वहीं पर 'यह स्थाणु है वा पुरुष ?' इसप्रकारका संशय एवं स्थाणुमें 'यह पुरुष हैं इसप्रकारका विपरीत ज्ञान होता है। तथा जिस समय ज्ञान एक समयमें अनेक पदार्थोंको विषय करने वाला होगा उसी समय वह समस्त पदार्थों के अनित्यत्व अनात्मीयत्व आदिअनेक विशेषोंको एक समय। में जान
ता है किंतु यदि वह एक ही अर्थको विषय करेगा तब वह अनेक विशेषोंको नहीं जान || ७ सकता क्योंकि एक समयमें एक ही पदार्थको विषय करनेवाला ज्ञान दो आदि पदार्थों के विशेषोंको नहीं || || जान सकता यह नियम है इसलिये एक समयमें अनेक पदार्थों के विशेषोंकी उपलब्धि न होनेके कारण ||
विपरीत ज्ञान नहीं हो सकता। विपरीत ज्ञानके न होनेसे बंध भी नहीं हो सकता फिर 'विपरीत ज्ञानसे है| बंध होता है यह सांख्य आदि वादियोंका कथन मिथ्या हो जाता है । तथा प्रकृति और पुरुषका विवेक
ज्ञान अथवा समस्त पदार्थों में अनित्य अनात्मिक अशुचि दुःखरूप ज्ञानसे मोक्ष होती है ऐसा सिद्धान्त || बौद्धोंने माना है ऐसी अवस्थामें यदि ज्ञान एक समयमें एक ही पदार्थको विषय करेगा तब प्रकृति और * पुरुषके विवेकका वा समस्त पदार्थों में अनित्यत्व आदि विशेषोंका ज्ञान होगा नहीं इसलिये मोक्ष पदार्थ | भी सिद्ध नहीं हो सकता । यदि कदाचित् यह कहा जाय कि
ज्ञानदर्शनयोर्युगपत्प्रवृत्तरेकत्वमिति चेन्न तत्त्वावायश्रद्धानभेदात्तापप्रकाशवत् ॥२१॥ ज्ञान और दर्शनकी प्रवृति--प्रकटता वा आत्मलाभ एक साथ होता है इसलिये उन दोनोंको |
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