Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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'कभी नहीं जाना है उसे स्थाणुमें 'यह पुरुष है' ऐसा विपरीत ज्ञान नहीं होता । उसीप्रकार अनादिकाल से संसार में घूमनेवाले जिस पुरुषको पहिले कभी प्रकृति और पुरुष के भेदका ज्ञान नहीं हुआ है उसके भी प्रकृति और पुरुष में विपरीत ज्ञान नहीं हो सकता । क्योंकि दोनों का पहिले विशेष ज्ञान होना ही विपरीत ज्ञानमें कारण है सो पहिले कभी भी नहीं हुआ इस रूपसे प्रकृति और पुरुष के विशेषोंकी अनुपलब्धि से विपरीत ज्ञानका अभाव है । तथा अनित्य, आत्मस्वरूपसे भिन्न, अपवित्र और दुःखरूप समस्त पदार्थोंको नित्य आत्मिक पवित्र और सुखस्वरूप मानना विपरीत ज्ञान है वह अब न वन सकेगा क्योंकि समस्त पदार्थोंकी अनित्यता आदि पहिले कभी अनुभवमें नहीं आई और जिन पदार्थोंका सामान्य वा विशेष स्वरूप कभी अनुभवमें नहीं आया उनका विपरीत ज्ञान आजतक होता हुआ सुना नहीं गया इसलिये विपरीत ज्ञान के अभाव से बंघका अभाव जब सिद्ध हो जाता है तब 'विपरीत ज्ञान से बंध होता है' यह जो सांख्य आदिका आगम है वह खंडित हो जाता है । यदि यह कहा जाय कि प्रकृति और पुरुष विवेककी उपलब्धि अथवा समस्त पदार्थों के अनित्यता वा नित्यता आदि विशेषों की उपलब्धि पहिले भी हो जाती है इसलिये विपरीत ज्ञानका अभाव नहीं कहा जा सकता ? सो भी ठीक नहीं । प्रकृति और पुरुषका विवेकज्ञान वा समस्त पदार्थोंका अनित्यत्वादि ज्ञान ही मोक्ष मानी गई है यदि वैसा विशेष ज्ञान पहिले हो चुका तो उसी समय मोक्ष भी हो चुकी ऐसा समझना चाहिये । विवेक ज्ञान हो और मोक्ष न हो यह बात सांख्य आदि सिद्धान्तों के विरुद्ध है और भी यह बात है किप्रत्यर्थवशवर्तित्वाच्च ॥ २० ॥
जिनका यह सिद्धान्त है कि ज्ञान एक समय में एक ही पदार्थको विषय करता है उनके मत में भी
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भाषा
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