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2. प्रिय, अरुचिकर भावनाओं से रहित,---इत्थं गिरः । लागू न हो, समस्त विस्तार पर छाया हुआ न हो प्रियतमा इव सोऽव्यलीकाः शुश्राव सूततनयश्च तदा --- वह्निधूमस्याव्याप्यः । सम०-वृत्तिः (स्त्री)[वैशे० व्यलीका:--शि० ५।१।
द० में] सीमित प्रयोग की एक श्रेणी, देशकाल की अव्यवधान (वि.) [न० ब०] 1. मिला हुआ, पास का, स्थिति से आंशिक विद्यमानता-जैसे सुख-दुःख
अन्तररहित 2. खुला हुआ 3. जो ढका न हो, नंगा 4. ४. अव्याप्यवृत्तिः क्षणिको विशेषगुण इष्यते---भाषा०
असावधान, लापरवाह,-नम् लापरवाही। अव्यवस्थ (वि.) नि० ब०] 1. जो नियत न हो, हिलने
अव्याहत (वि.) [न० त०] न ट्टा हआ, वाधारहित, डुलने वाला, अस्थिर-स्थलारविंदश्रियमव्यवस्थाम
निर्बाध; मानी हुई (आज्ञा)-भर्तुरव्याहताशाकु०१।३३ 2. अनिश्चित, विशृंखल, अनियमित-स्था
रघु० १९ । ५७. । 1. अनियमितता, मान्यता प्राप्त नियम से स्खलन
अव्युत्पन्न (बि०) [न० त०] 1. अकुशल, अनुभवशून्य, 2. शास्त्रविरुद्ध व्यवस्था ।
अव्यवहृत, अनाड़ी-अव्युत्पन्नो बालभावः--का० अव्यवस्थित (वि०) [न० त०] 1. जो प्रचलित व्यवस्था
१९६, 2. (शब्द) जिसकी व्युत्पत्ति नियमित न हो, या कानून के अनुरूप न हो 2. विनियमरहित, चंचल,
---न्नः भाषा के व्याकरण तथा वाग्धारा आदि के ज्ञान अस्थिर---अव्यवस्थितचित्तस्य प्रसादोऽपि भयङ्करः
से शून्य व्यक्ति, पल्लवग्राही भाषाशास्त्री। नीति० ९, 3. जो क्रमबद्ध न हो, विधिपूर्वक न हो। | अब्रत (वि.)/न.ब.] जो धार्मिक संस्कार तथा अन्य अव्यवहार्य (वि०) [न० त०] 1. जो अपने जातिबन्धुओं धर्मानुष्ठान का पालन न करता हो--अवतानाम
के साथ खाने पीने का अधिकारी न हो, जातिबहिष्कृत मन्त्राणां जातिमात्रोपजीविनाम्, सहस्रशः समेतानां 2. जो मुकदमे का विषय न बनाया जा सके, व्यवहार परिषत्त्वं न विद्यते । मनु० १२ । ११४, ३ । १७०। के अयोग्य ।
अश 1. (स्वा० आ०) अश्नुते, अशित-अष्ट] 1. व्याप्त अव्यवहित (वि०) [न० त०] व्यवधानरहित, साथ मिला
होना, पूरी तरह से भरना, प्रविष्ट होना-खं प्रावषेहुआ।
ण्यैरिव चानशेऽब्दैः- भट्टि० २।३० कि० १२।२१, अव्याकृत (वि.) [न० त०] 1. अविकसित, अस्पष्ट
2. पहुंचना, जाना या आना, उपस्थित होना, प्राप्त -तद्वेदं तमुव्याकृतमासीत् इदं नामरूपाभ्यामव्याकृतम्
करना सर्वमानन्त्यमश्नुते-या० ११२६१, 3. प्राप्त शत० 2. प्रारंभिक, तम् (वेदान्त०) 1. प्रारंभिक
करना, ग्रहण करना, आनंद लेना, अनुभव प्राप्त तत्व-ब्रह्म के समनुरूप-इससे संसार की सभी
करना---अत्युत्कट: पापपुण्यरिदेव फलमश्नुते-हि. वस्तुएँ बनी 2. (सांख्य० में) प्रधान-प्रकृति का
१६८०, रघु० ९४९, न वेदफलमश्नुते—मनु० प्राथमिक अणु।
११०९, फल दृशोरानशिरे महिष्यः-० ११४३ । अव्याजः--जम् [न० त०] 1. छल-कपट का अभाव,
उप-प्राप्त करना, उपभोग करना, ग्रहण करना-न ईमानदारी 2. सादगी, अकृत्रिमता- बहुधा समास में
च लोकानुपाश्नुते--महा०, क्रियाफलमुपाश्नुते 'सुन्दर' और 'मनोहर' के साथ--प्राकृतिकता या
—मनु० ६।८२, वि—पूर्ण रूप से भरना, अकृत्रिमता के अर्थ में प्रयुक्त—इदं किलाव्याज
व्याप्त होना, स्थान ग्रहण करना--प्रतापस्तस्य मनोहरवपुः-श०१।१८। ।
भानोश्च युगपद् व्यानशे दिश: – रघु० ४।१५, भट्टि० अव्यापक (वि०) [न० त०] 1. जो बहुत विस्तीर्ण न हो
९।४, १४।९६ । 2. जिसने समस्त को न व्यापा हो, विशेष ।
अश् 2. (क्या० पर०) [अश्नातिअशित] 1. खाना, उपअव्यापार (वि०) [न० ब०] जिसके पास कोई कार्य न भोग करना--निवेद्य गुरवेऽनीश्यात्--मनु० ११५१,
हो, काम में न लगा हुआ,—र: [न० त०] 1. काम अश्नीमहि वयं भिक्षाम् –भर्तृ० ३।११७, 2. स्वाद से विराम 2. ऐसा काम जो न तो किया जा सके, न लेना, रस लेना-यद्ददाति यदश्नाति तदेव धनिनो समझ में आवे 3. जो अपना निजी व्यापार न हो, धनम् - हि० १११६४-६५, अश्नन्ति दिव्यान् दिवि --अव्यापारेषु व्यापारम्-दूसरों के मामलों में हस्तक्षेप देवभोगान्-भग० ९।२०, प्रत्यक्षं फलमश्नन्ति करना।
कर्मणाम् ..महा०, (प्रेर०----आशयति) खिलाना, अव्याप्तिः (स्त्री) न० त०] 1. अपर्याप्त विस्तार, या भोजन करान., खिलवाना पिलवाना (कर्म० के
प्रतिज्ञा पर अधरी व्याप्ति 2. परिभाषा में दिये गये साथ)--आशयच्चामृतं देवान-सिद्धा०, प्र--1. लक्षण का घटित न होना, परिभाषा के तीन दोषों पीना, न प्राश्नोतोदकमपि—महा०, 2. खाना,
में से एक- लक्ष्यक देशे लक्षणस्यावर्तनमव्याप्तिः ।। निगलना प्राश्नन्नथ सुरामिषम् - भट्टि० १७॥३, अव्याप्य (वि.) [न० त०] जो सारी स्थिति के लिए। १३, १५।२९, सम् -1. खाना, नक्तं चान्नं
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