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नियमसार-प्राभृतम्
उक्तं च श्रीवीरसेनाचार्यै:
"भावसुदस्स अत्यपवाणं च तित्थयरो कत्ता । तित्ययरादो सुदपज्जायेण गोदमो परिणदत्ति वसुदस्स गोदमो कत्ता । तत्तो गंधरयणा जावेति । "
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तेन श्रुतेन कथिताः प्रतिपादिता ये केचन पदार्थास्त एव तवार्थाः । तत्त्वमित्यनेन किं ज्ञायते ? उच्यते सत्वशब्दो भाववाची । कथं ? तदिति सर्वनामपदम् । सर्वनाम च सामान्ये वर्तते । तस्य भावस्तत्वम् । तस्य कस्य ? योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः ।
"
अर्थस्य कोऽर्थ ? अर्यंत इत्यर्थो निश्चीयते इति यावत् । अथवा "गुणपर्यायानिर्यात गुणपर्यायैरर्यन्त इति वा अर्थाः द्रव्याणि ।” तश्वेनार्थस्तत्वार्थः ।
१. धवला पु० १ ० ६६ ।
२. सर्वार्थसिद्धि अ० १, सूत्र २ ।
३. प्रवचनसारगाथा ८७, पृ० २०५ ।
श्री वीरसेनाचार्य ने कहा भी हैं --
"भावश्रुत और अर्थपदों के कर्ता तीर्थंकर हैं । तीर्थंकर से गौतमस्वामी पर्याय से परिणत हो जाते हैं इसलिए द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम हैं। उनसे ही ग्रन्थ रचना हुई है ।
अब तत्वार्थ को कहते हैं
उस श्रुत से कहे गए जो कुछ भी पदार्थ हैं वे ही तत्त्वार्थं कहलाते हैं । शंका----'तत्त्व' इस शब्द से क्या समझना ?
समाधान -- यहाँ 'तत्त्व' शब्द भाववाची है । तत् यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम पद सामान्य अर्थ में रहते हैं । 'तस्य भावः तत्त्वं' उसका जो भाव है वह तत्त्व है ।
शंका-- 'उसका' से किसको लेना ?
समाधान — जो पदार्थ जिस प्रकार से अवस्थित है उसका उसी प्रकार होना, यह अर्थ इस तत्त्व शब्द से समझना ।
शंका - - 'अर्थ' किसे कहते हैं ?
समाधान- "ऋ" धातु से " अयंते " बनता है । यह गत्यर्थं धातु है । इसलिए जो "अर्यते" अर्थात् निश्चित किया जाता है वह अर्थ है । अथवा जो गुण