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नियमसार-प्राभृतम् उक्तं च भगवती आराधनायाम्--
"यदि ते धर्सयितुमिदानीन्तनानामसामयं किं तदुपदेशेनेति चेत् ? तस्स्वरूपपरिवानात सम्यग्ज्ञानं तच्च मुमुक्षूणामुपयोग्येवेति' ।"
अस्मिन् शास्त्रे जिनदेवोपविष्टागमानुसारेणेव सर्वं कथनमस्ति न च स्वेमछानुकूलम् । किंच-स्वमन बहुजनेभ्यो नाम रोशः स रकारिवासिद्धान्त पृथगेव सिद्धान्तं जायते, तदेकं नूतनमतं भूत्वा बाह्यमतेषु गछति । उक्तं चाप्तमीमांसायां स्वामिभिः----
त्वन्मतामृतबाझानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमाननग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥
भगवतो आराधना में कहा है--
"यदि उन प्रायोगमन और इंगिनोमरण संन्यास को करने की आजकल के मुनियों में सामर्थ्य नहीं हैं, तो पुनः उनका उपदेश क्यों दिया ?
उनके स्वरूप को समझने से सम्यग्ज्ञान होता है और वह मुमुक्षु जनों के लिये उपयोगी हो है । इसलिये उपदेश दिया है।"
__ अर्थात् प्रायोपगमन, इंगिनी और भक्तप्रत्याख्यान ये तीन संन्यास विधि के भेद हैं। इनमें से आदि के दो उत्तम संहनन वाले जिनकल्पी मुनि के ही होते हैं । फिर भी भगवती आराधना में इनका लक्षण बताया गया है। तभी वहाँ ऐसा प्रश्नोत्तर हुआ है।
___इस नियमसार में जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट आगम के अनुकूल ही सर्व कथन है, न कि अपनी इच्छा के अनुकूल, क्योंकि अपने मन को या बहुत जनों को जो रुचता है वह स्वकल्पित सिद्धान्त अलग ही एक सिद्धान्त हो जाता है, पुन: वह एक नूतन मत होकर बाह्य मतों में चला जाता है ।।
श्री समंतभद्र स्वामी ने आप्तमीमांसा में कहा है--
"हे भगवन् ! जो आप के मतरूपी अमृत से बाह्य हैं, सर्वथा एकांतवादी हैं और 'मैं आप्त हूँ' इस प्रकार से आप्त के अभिमान से दग्ध हैं, उनका इष्ट-मत प्रत्यक्ष से बाधित होता है।" १. भगवती-आराधना की अपराजितसूरिकृत टीका में । २, आप्तमीमांसाकारिका ।