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नियमसार-प्राभूतस्
परत्वेन एका गाथा गता, लदनु "ईसाभावेण" इत्यादिना भव्यजनकर्तव्यता प्रेरणाप्रतिपादनत्वेन एका गाथा गता, तदनन्तरं "णियभावणाणिमित्तं" इत्यादिग्रन्थरचनायाः कारणनिरूपणपरत्वेन एका गाथा गता इति त्रिभिर्गाथासूत्रैरयं पंचमोऽन्तराधिकारो गतः ।
अस्मिन् ग्रंथे एतद् द्वादशाधिकारे पूर्वोक्तप्रकारेण सप्तदशगाथासूत्र : व्यवहारनियमेन साध्यस्य संप्राप्यस्य निश्चयनियमस्य शुद्धोपयोगापरनाम्नः फलभूताया भावमोक्षरूपार्हन्त्यावस्थाया निरूपणम्, तदनु नवभिर्गाथासूत्रैः साक्षाद्रव्यमोक्षरूपसिद्धावस्थायाः प्ररूपणं वर्तते । पुनश्च त्रिभिर्गाथासूत्र : ग्रंथस्योपसंहारश्चेति एकोनत्रिंशद्गाथासूत्रैरयं तृतीयो महाधिकारः पूर्णोऽभवत् ।
इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत नियमसारप्राभूतग्रंथे ज्ञानमत्यायिकाकृतस्याद्वादचन्त्रिकानामटीकायां मोक्षमहाधिकारापरनामा योगनामा बिधादिकारः समाप्तः ।
और अपनी लघुता को दिखलाने रूप से एक गाथा हुई। इसके बाद "ईसाभावेण " इत्यादि रूप से भव्य जनों के कर्तव्य की प्रेरणा को प्रतिपादित करते हुये एक गाथा हुई | अनंतर — "यिभावणाणिमित्तं" इत्यादि रूप से ग्रंथ रचना के कारण को निरूपित करते हुये एक गाथा हुई। इन तीन गाथाओं द्वारा यह पाँचवा अंतराधिकार पूर्ण हुआ ?
इस ग्रंथ में इस बारहवें अधिकार में पूर्वोक्त प्रकार से सत्रह गाथासूत्रों से व्यवहारनियम के द्वारा साध्य, संप्राप्त करने योग्य शुद्धोपयोग अपर नाम वाले निश्चयनियम के फलभूत भावमोक्षरूप आर्हन्त्य अवस्था का निरूपण है । इसके बाद नव गाया सूत्रों से साक्षात् द्रव्यमोक्षरूप सिद्धावस्था का निरूपण है । पुनः तीन गाथासूत्रों से ग्रन्थ का उपसंहार किया गया है। इस तरह उनतीस गाथासूत्रों से यह मोक्षफलप्रतिपादक दोसरा महाधिकार पूर्ण हुआ ।
इति श्री भगवान् कुन्दकुन्द चायं प्रणीत नियमसार - प्राभृत ग्रन्थ में ज्ञानमती आयिकाकृत स्याद्वादचंद्रिका नाम की टीका में महा
धिकार अपर नामवाला यह शुद्धोपयोग नामक बारहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ।