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नियमसार-प्राभृतम्
५५७ इत्थं नियमसारप्रा तनाम्नि महाशास्त्रे सप्ताशीत्युत्तरशतानि सर्वगाथासूत्राणि, षट्सप्ततिवयशीत्येकोनत्रिंशद्गाथाभिस्त्रयो महाधिकाराः, जीवाजीवशुद्धभावव्यहारचारित्रपरमार्थप्रतिक्रमणनिश्चयप्रत्याख्यानपरमालोचनाशुद्धनिश्चयप्राय . श्चित्तपरमसमाधिपरमभक्तिनिश्चयपरमावश्यकशुद्धोपयोगनामभिः द्वावशाधिकाराः, प्रत्येकाधिकारान्तर्गताश्च सप्तत्रिशदन्तराधिकाराः सन्ति ।
श्रीकुन्दकुन्ददेवेभ्यो नमो यैः खलु वशितः । पन्था नियमसारेण नः सन्नस्तीष्टसिद्धये ॥१२॥ एकैकपंचयुग्मांके, वीराब्वे सप्तमोतियाँ । मार्गेऽसिते मया टीका, ज्ञानमत्या प्रपूर्यते ॥२॥ यावद्धर्मोऽप्ययं मेस्तावत् स्येयाविहेष हि। यस्यातिगायिनो भवस्या पूर्णीजाता कृतिस्त्वरम् ॥३॥
इस नियमसार-प्राभृत नाम के महाशास्त्र में सर्वगाथा सूत्र एक सौ सत्यासी (१८७) छयत्तर, बयासी और उनतीस गाथाओं से तीन महाधिकार हैं। जीव, अजीव, शुद्धभाव, व्यवहारचारित्र, परमार्थ प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान, परम आलोचना, शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति, निश्चय परम आवश्यक और शुद्धोपयोग इन नामों से बारह अधिकार हैं और प्रत्येक अधिकार के अंतर्गत सैंतीस (३७) अंतर अधिकार हैं।
श्री कुन्दकुन्ददेव को नमस्कार होवे, इस नियमसार द्वारा दिखलाया गया पथ हम सबको अभीष्ट सिद्धि के लिये हो रहा है ।
वीर संवत् पच्चीस सौ ग्यारह (२५११) में मगसिर कृष्णा सप्तमी तिथि को मुझ ज्ञानमती ने यह टीका पूर्ण की है।
____ जब तक धर्म है, तब तक यह सुमेरु पर्वत (यहाँ पर हस्तिनापुर में बना हुआ) यहाँ पर स्थित रहे कि जिस अतिशय पूर्ण सुमेरु पर्वत की भक्ति से मेरी यह रचना शीघ्र ही पूर्ण हो गई है। अर्थात् इस टीका को प्रारंभ करने के बाद बीच में लगभग चार वर्ष का व्यवधान पड़ गया, पुनः टोका रचना प्रारंभ करते समय मैंने इस सुमेरु पर्वत की, उनमें विराजमान सोलह जिनबिंबों की भक्ति करके लिखना शुरू किया और वह आशातीत जल्दी ही पूर्ण हुया है।