Book Title: Niyamsara Prabhrut
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 592
________________ नियमसार-आभूतम् ५६१ गेहेऽष्टवर्षपर्यंतं, द्वात्रिंशद् घिरताश्रमे । ज्ञानाराथनया लब्धं यत्किमप्यमृतं मया ॥१३॥ एकत्रीकृत्य तत्सर्वम् अस्मिन् ग्रन्थे भृतं मुदा । तुष्ट्यै पुष्टयै मनःशुद्धचै, शान्त्यै सिद्धयै च स्वात्मनः ॥१४॥ संघस्था रत्नमत्यार्या, जोयात् शिवमतीत्यपि । मोतीचन्द्रो रवीन्द्रश्च, माग गदतात् निरन् ।।१५। येषां चित्तस्य च प्राप्तेऽनुकूलत्वेऽलिख कृतिम् । बाह्यानां प्रतिकूलत्वं, नेकान्तेन हि बाषते ॥१६॥ अद्यस्वे भारत देशे, गणतंत्रात्यशासनम् । जैनधर्मस्य वृद्धिस्तु धर्मनिरपेक्षताविधौ ॥१७॥ अद्य राष्ट्रपतिर्जानी जैलसिंहोऽत्र शासकः । राजीवगांधीनामास्ति, प्रधानमंत्री कीर्तिमान् ॥१८॥ बाह्य निमित्त से हो मुझे विरक्ति हो गई । घर में आठ वर्ष पर्यंत और विरताश्रमघर त्याग के बाद भल्लिका, आर्थिका अवस्था में बत्तीस वर्ष तक मैंने ज्ञानाराधना से जो कुछ भी अमृत प्राप्त किया है, वह सब एकत्रित करके मैंने अपनी आत्मा की तुष्टि, पुष्टि, मन की शुद्धि, शांति और सिद्धि के लिये हर्षित मन से इस ग्रन्थ में भर दिया है । संघ में स्थित आयिका रत्नमती जी और शिवमती जी जयशील होवे. तथा मोतीचन्द्र, रवीन्द्रकुमार और माधुरी भी चिरकाल तक वृद्धि को प्राप्त होवें । जिनकी और अपने चित्त को अनुकुलता के प्राप्त होने पर मैंने यह कृति-टीका लिखी है, क्योंकि बाह्य लोगों की या बाह्य वातावरण को प्रतिकूलता एकांत से कार्य में बाधक नहीं होती है। अर्थात् संघ की आर्यिका तथा शिष्य वर्गों की आज्ञापालन, वैयावृत्ति आदि अनुकूलता रहने से लेखन आदि कार्य होते हैं। बाहर के लोग चाहे अनुकूल हों या निन्दा आदि करते रहें, उससे लेखन आदि कार्य में कुछ बाधा नहीं भी आती है। आजकल इस भारत देश में गणतंत्र नाम का शासन चल रहा है। इस समय धर्मनिरपेक्ष विधान होने से, अर्थात् शासन के संविधान में धर्मनिरपेक्षता होने से जैनधर्म वृद्धिंगत हो रहा है । आज राष्ट्रपति ज्ञानी जैनसिंह यहाँ पर भारत के

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