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नियमसार-प्राभृतम् शक्त्यभावे वा क्रमशो देशचारित्रबलेन शक्ति वर्धयन्तो भवन्ति । पुनस्त एव नियमाव व्यवहारनियमबलेन निश्चयनियम समुत्पाद्याप्रमत्तप्रभूतिगुणस्यानेष्वारुह्यान्तेऽभूतपूर्वाः सिद्धा भविष्यन्ति । यद्यप्यनादिकालादद्यावधि संजाताः सिद्धा अनन्तानन्तास्तथापि तेऽभूतपूर्वा एव ।
पंचचत्वारिशल्लक्षयोजनप्रमितायाः सिद्धशिलाया उपरि सिद्धलोकः पूर्णतया सिद्धेभ्यो व्याप्तो भृतोऽस्ति, तत्राणुमात्रमपि स्थानं रिक्तं नास्ति, प्रत्युत सर्वे सिद्धा एकैकस्मिन् अने के समाविष्टा एव । अयं मानवलोकोऽपि तावत्प्रमाणं पंचचत्वारिंशत्शलसहस्रयोजनमेवास्ति । अत्र त्यनदौसमुद्रादिभ्यो ये सिद्धास्ते संहरणापेक्षयैव ।
उक्तं च श्रीभट्टाकलंकदेवे
"भूतपूर्वनयापेक्षया तु चिन्त्यते--क्षेत्रसिद्धाः विधा, जन्मतः संहरणतश्च । तत्राल्पे संहरणसिद्धाः । जन्मसिद्धाः संख्येयगुणाः । संहरणं द्विविधम-स्वकृतं परकृतं च । देवकर्मणा चारणविद्या
भेदविज्ञानी होकर सकलचारित्र को ग्रहण करके अथवा शक्ति के अभाव में क्रम से देशचारित्र के बल से शक्ति को बढ़ाते रहेंगे। पुनः वे ही नियम से व्यवहारनियम के बल से निश्चनियम को उत्पन्न करके अप्रमत्त, अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में चढ़कर 'अभूतपूर्व' सिद्ध हो होवेंगे। यद्यपि अनादिकाल से लेकर आज तक हुये सिद्ध भगवान् अनंतानंत हैं, फिर भी वे सब अभूतपूर्व ही हैं।
पैंतालीस लाख योजन प्रमाण की सिद्धशिला के ऊपर सिद्धलोक पूर्ण रूप से सिद्धों से व्याप्त है, भरा हुआ है, वहाँ पर अणुमात्र भी स्थान खाली नहीं है । बल्कि सभी सिद्ध परमेष्ठी एक-एक में अनेकों समाविष्ट ही हैं। यह मनुष्य लोक भी उतने प्रमाण पैतालीस लाख योजन का ही है ।
__यहाँ के नदी, समुद्र आदि से जो सिद्ध होते हैं, वे संहरण की अपेक्षा से ही होते हैं । सो हो श्री भट्टाकलंक देव ने कहा है---
"भूतपूर्व नय की अपेक्षा से विचार किया जाता है---
क्षेत्रसिद्ध दो प्रकार के हैं-जन्म से और संहरण से । उनमें संहरण सिद्ध अल्प हैं । जन्म सिद्ध उनसे संख्यात गणे हैं । संहरण के भी दो प्रकार हैं- स्वकृत और परकृत । देवों के द्वारा या चारण विद्याधरों के द्वारा किया गया परकृत है।