Book Title: Niyamsara Prabhrut
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 584
________________ नियमसार-प्राभृतम् अयं ग्रंथो नियमकुमुदं विकासयितुं चन्द्रोदयस्ततो नियम कुमुदचन्द्रोदयोऽथवा यतिकैरवाणि प्रफुल्लोकर्तुं राकानिशीथिनीनाथत्वाद् यतिकैरव चन्द्रोदयोऽस्ति । अस्मिन् पदे पदे व्यवहारनिश्चयनययोर्व्यवहारनिश्चय क्रिययोर्व्यवहारनिश्चय मार्गयोश्च परस्पर मित्रत्वात् अस्य विषयः कृतो वर्तयतीका चन्द्रोदयस्य चन्द्रिका व विभासते तो "स्याद्वादचन्द्रिका' नाम्ना सार्थक्यं लभते । यथा चन्द्रस्य चंद्रिका ज्योत्स्ना सर्वजगद् आल्हादयति, उग्ररश्मिहुताशनविद्याविभ्यः संतप्तजनान् प्रीणयति शीतीकरोति तथैवेयं "स्याद्वादचन्द्रिका" टोका भवभवाग्निसं सप्तभव्यजीवान् आह्नावयिष्यति, प्रीणविष्यति, शीतीकरिष्यति तेषां मनःकुमुदानि विकासयिष्यति, महामोहतमसाऽज्ञानध्वतिन वा पथभ्रष्टजनानां हितपथं प्रकाशयिष्यति, नात्र सन्देहः । अनया स्याद्वादचन्द्रिकाटोकया समन्वितमिमं नियमसारप्राभृतग्रन्थं ये भन्योत्तमाः पठिष्यन्ति गुरुमुखकमलेभ्यः श्रोष्यन्ति वा, ते आप्तागमतत्त्वश्रद्धाबलेन शुद्धनात् स्वं सिद्धसदृशं निश्वित्थ स्वपरभेद विज्ञानिनो भूत्वा स • लचारित्रमावाय , ५५३ लिये चंद्रमा का उदय है कैरव - श्वेतकमलों को खिलाने के यह ग्रंथ नियमरूपी कुमुद को विकसित करने अतः यह नियमकुमुद चन्द्रोदय है । अथवा यतिरूपी के लिये पूर्णिमा की अर्धरात्रि का चन्द्रमा होने से यह यतिकैरव चंद्रोदय है इसमें पद पद पर व्यवहार - निश्चय नयों की, व्यवहार-निश्चय क्रियाओं की ओर व्यवहार - निश्चय मार्ग की परस्पर में मित्रता होने से इसका विषय स्याद्वाद से सहित है। इसकी टीका चंद्रमा के उदय की चांदनी के समान शोभित हो रही है । इसलिये यह "स्वाद्वादचन्द्रिका' नाम से सार्थकता को प्राप्त है । जैसे चंद्रमा की चन्द्रिका सर्वजगत् को आह्लादित करती है, सूर्य की किरण, अग्नि और विष आदि से संतप्त जनों को प्रसन्न करती है, शांतल करती है, वैसे ही यह स्याद्वादचंद्रिका टीका भवभव की अग्नि से सतंप्त भव्य जोवों को आह्लादित करेगी, उन्हें प्रसन्न करेगी, शीतल करेगी, उनके मनरूपी कुमुद्दों को विकसित करेगी और महामोहरूपी अधकार से अथवा अज्ञान अधंकार से पथभ्रष्ट हुये जनों को हित का मार्ग प्रका शित करेगी, इसमें संदेह नहीं है । इस स्याद्वादचंद्रिका टीका से समन्वित इस नियमसार प्राभृत ग्रन्थ को जो भव्योत्तम पढ़ेंगे या गुरुओं के मुखकमल से सुनेंगे, वे आप्त, आगम और तत्त्व के श्रद्धान के बल से शुद्धमय से अपने को सिद्धसमान निश्चित करके स्वपर ७०

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