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नियमसार-प्राभृतम्
५५१ श्रीगौतमगणधरदेवाः चतुनिसमन्विता अपि जिनदेवस्य वचनेष्वेव रुचि विदधुः । दृश्यताम्--
___ "णियाणमन्ग सम्वदुक्खपरिहाणिमार्ग सुचरियपरिणियाणमग अवितहं अविसंति परयणं उत्तम सदहामि तं पत्तियामि तं रोचेमि तं फासेमि इदोतरं अj णस्थि ण भूदं न भविस्तवि, मागेण वा बसणेण वा चरित्तेण वा सुत्तेण वा इदो जीवा सिझंति बुज्झति मुच्चंति परिणिव्यायंति सम्वयुक्खाणमंत कति पनि वियाणनि समगमोमि पंचोमि उन्दोगि वसंतोमि उबहिणिय डिमाणमायमोसमिच्छणामिछदसणमिछचारित्तं च पडि विरदोमि, सम्मणाण-सम्मदसणसम्मचरित्तं च रोचेमि जं जिणवरेहि पण्णतं'।"
एवमनन्ततीर्थेश्वरैरनाधनिधनरत्नत्रयस्वरूपमार्ग एवोपदिष्टा, विदेहोंनेबसावेव मार्गोऽद्यावध्यविच्छिन्नप्रवाहणागतोऽस्त्यग्रेऽप्यनन्तकालेऽयमेव चलिष्यति । अत्रापि दुरुषमकाले इदं वीरप्रभुशासनमविच्छिन्ननेव वय॑ते । मध्ये सप्ततीर्थकराणा
श्री गौतम गणधरदेव चार ज्ञान से समन्वित होते हुये भी जिनेन्द्रदेव के वचनों में ही रुचि रखते हैं । देखिये--
"यह निर्ग्रन्थ लिंग निर्वाण का मार्ग हैं, सब दुखों के परिहानि का मार्ग है, निरतिचार शोभन चारित्र के धारकों के परिनिर्वाण का मार्ग है, सत्य है, प्रवचनस्वरूप है, उत्तम है। मैं उसका श्रद्धान करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, रुचि करता हूं, स्पर्श करता हूँ, इससे उत्कृष्ट लिंग न बर्तमान काल में है, न अतीत काल में था और न भविष्य काल में होगा। इस निर्ग्रन्थ मुद्रा को धारण कर ज्ञान से, या दर्शन से, या चारित्र से, या सूत्र से यहाँ पर जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध केवली होते है, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं, सर्व दुःखों का अन्त कर देते हैं और विशेषतया सब कुछ जान लेते हैं । इसे ग्रहण कर मैं श्रमण हैं, मैं संयत हैं, मैं विषयों से व्यावृत्त हूँ, मैं उपशान्त हूँ, मैं उपधि-परिग्रह, विकृति, मान, माया, मृषा, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र, इन सबसे विरत हूँ, मैं सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र में रुचि करता हूँ, जो कि श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया है।
इस तरह अनंत तीर्थकरों ने अनादि अनिधन रत्नत्रयस्वरूप मार्ग का ही उपदेश दिया है । विदेह क्षेत्रों में यही मार्ग आज तक अविछिन्न प्रवाह से आ रहा है और आगे अनंत काल तक भी यही चलता रहेगा । यहाँ भी इस दुषम काल १. यतिप्रतिक्रमणम्-दवसिक ।