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नियमसार-प्राभतम् तानां च लक्षणं प्रदश्यते । तदनन्तरं "णियमं णियमस्स फलं' इत्यादिना गाथात्रयेण ग्रन्थरचनाया उद्देश्यं प्रदर्य स्वौद्धत्यपरिहतिपूर्वकग्रन्थोपसंहारो निरूप्यते । इति पंचभिरन्तराधिकारैरियं समुदायपातनिका सूचिता भवति ।
उभयनयाश्रित केवलिभगवत स्वरूपं प्रतिपादयन्त्याचार्य देवाःजाणदि पस्सदि सव्वं, क्वहारणयेण केवलो भगवं । केवलणाणी जाणदि, पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥१५९॥
जाणदि पस्सदि-जानाति पश्यति । कः कर्ता ? केवली भगवं-केवली भगघान्, सहर्जावमलकेवलज्ञानवर्शनस्वरूपकार्यसमयसारपरिणतः सकलपरमात्मा । के कर्मतापन्नम् ? सव्यं-अलोकाकाशसहितमधोमध्योर्ध्वलोकविभक्तलोकाकाशं त्रैलोक्यं भूतभाविवर्तमानरूपं काल्यं सर्वं चराचरवस्तुसमूहं च । केन जानाति पश्यति ? ववहारणयेण-व्यवहारनयेन परद्रव्याश्रितथ्यबहारनयापेक्षया । पुनः स्वं जानाति पश्यति न या ? अप्पाणं जाणदि पस्सदि केवलणाणी-स्वात्मोत्थपरमानंदलक्षणं निज
का लक्षण और उस पद को प्राप्त हुये सिद्धों का स्वरूप दिखलाया गया है । इसके अनंतर "णियम णियमस्स फलं'' इत्यादि रूप तीन गाथाओं द्वारा ग्रन्थ रचना का उद्देश्य बतलाकर अपनी लघुता प्रगट करते हुये ग्रन्थ का उपसंहार किया गया है । इस तरह पांच अंतराधिकारों द्वारा यह समुदाय पातनिका सूचित की गई है ।
___ अब आचार्यदेव उभय नय के आश्रित केवली भगवान् का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं
___अन्वयार्थ--(बबहारणयेण केवली भगवं सव्वं जाणदि पस्सदि) व्यवहारनय से केवली भगवान् सर्वजगत् को जानते और देखते हैं, (कवलणाणी णियमेण अप्पाणं जाणदि पस्सदि) किंतु केवलज्ञानी निश्चयनय से आत्मा को ही जानते देखते हैं।
टीका---सकल विमल केबल ज्ञान दर्शन स्वरूप कार्यसमयसार रूप से परिणत हुये सकल परमात्मा केवली भगवान् अधो, मध्य, ऊर्ध्वलोक इन तोन लोकरूप लोकाकाश को और अलोकाकाश को तथा भूत भविष्यत् वर्तमान इन तीनों कालों की संपूर्ण चर-अचर वस्तुओं को जानते और देखते हैं। यह कथन व्यवहारनय की अपेक्षा से है । पुनः ये केवलज्ञानी अहंत भगवान् निश्चयनय से,