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उक्तं च पूज्यपाददेवेन
नियमसार प्राभृतम्
त-
स्वात्माभिमुखसंवित्तिलक्षणं पश्यत् पश्यामि वेष ! स्वां केवलज्ञान चक्षुषा ॥
श्रुतचक्षुषा ।
इति ज्ञात्वा श्रुताभ्यासेन स्वोपयोगस्य स्थिरीकरणार्थं सततं प्रयासो विधातव्यः ।। १६६-१६८॥
अधुना सिद्धान्तकथनं व्यवहाराभिप्रायसहितगाथां च श्रुत्वा कश्चित् मन्यते - केवली भगवान् परपदाविजानाति, न स्वयं स्वम् ? तस्यैव शिष्यस्य पूर्वपक्षं निक्षिप्य तं समादधते सूरिदेवा:
लोयालोयं जाणइ, अप्पाणं णेव केवली भगवं ।
जइ कोइ भइ एवं, तस्य य किं दूसणं होई || १६९॥ गाणं जीवसरूवं तम्हा जाणेइ अपगं अप्पा | अप्पा वि जाणदि अप्पादो होदि वदिरित्तं ॥ १७० ॥
श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है
हे देव ! श्रुतज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा अपनी आत्मा के अभिमुख संवित्ति लक्षण आपको देखते हुये मैं केवलज्ञानरूपी चक्षु के द्वारा आपको देखूँगा ।
ऐसा जानकर श्रुत के अभ्यास से अपने उपयोग को स्थिर करने में सतत प्रयास करते रहना चाहिये ।। १६६-१६८॥
अब सिद्धांत के कथन को और व्यवहारनय के अभिप्राय वाली गाथा को सुनकर कोई मानता है कि केवली भगवान् पर पदार्थों को ही जानते हैं, न कि अपने को ? आचार्यदेव उसी शिष्य का पूर्वपक्ष रखकर समाधान कर रहे हैं
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अन्वयार्थ - (केवली भगवं लोयालोय जाणइ णेव अप्पाणं) केवली भगवान् लोक-अलोक को जानते हैं, न कि आत्मा को । ( जइ कोइ एवं भणइ तस्य य कि क्या दूषण आता है ? सो ही दिखाते
दुसणं होइ) यदि कोई ऐसा कहता है, तो उसे हैं- ( गाणं जीवसरूवं ) ज्ञान जीव का स्वरूप है ( तम्हा अप्पा अप्परं जाणेइ) इस - लिये आत्मा आत्मा को जानता है । ( अप्पाणं गवि जाणदि अप्पादो वदिरितं होदि ) यदि वह ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है, तो वह आत्मा से भिन्न हो जावेगा ।