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नियमसार-प्राभृतम्
उक्तं च श्रीमत्समंतभद्रस्वामिना -
कुशलाकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तग्रहक्तेषु नाथ ! स्वपरवैरिषु' ।।
किंच, ये तपोधनाः श्रावकाश्च परस्परसापेक्षां व्यवहारनिश्चययोमैत्री
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स्थापयन्ति त एव समयज्ञाः, त एव धर्मतीर्यस्योपरि व्रजितुं धर्मतीर्थं प्रवर्तयितुं च
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समर्था भविष्यन्ति ।
तथाहि-
मुख्योपचारविचरणनिरस्तदुस्तरविनेयदुबषाः । व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥
अतोऽत्र पूर्वापरविरोधो नास्ति । पूर्वापरविरोधस्य लक्षणं निरसनं च प्रागेव विहितमस्ति । "न हिस्यात् सर्वभूतानि", पुनश्च तस्मिन् एव ग्रन्थे " यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः" इत्यादिवाक्यानि पूर्वापरविरोधीनि सन्ति ।
श्री समंतभद्र स्वामी ने यही बात कही है-
हे नाथ ! जो एकांत दुराग्रह में लीन हैं, वे स्व-पर के वैरी हैं । उनके यहाँ पुण्य-पाप कर्म और परलोक कुछ भी नहीं सिद्ध होता है ।
दूसरी बात यह है कि तपोधन और श्रावक व्यवहार और निश्चय में परस्पर सापेक्ष मैत्री स्थापित करते हैं, वे ही शास्त्रों के ज्ञाता हैं, वे ही धर्मतीर्थं के ऊपर चलने के लिये और धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने के लिये समर्थ होयेंगे । उसे ही दिखाते हैं-
मुख्य और उपचार, अर्थात् प्रधान और गौण विवरण का वर्णन करते हुये जिन्होंने शिष्यों के कठिन भी दुर्बोध- अज्ञान या दुराग्रह को दूर कर दिया है, ऐसे व्यवहार और निश्चय इन दोनों के ज्ञाता महापुरुष इस जगत् में धर्मतीर्थं का प्रवर्तन करते हैं ।
इसलिये यहाँ पर पूर्वापरविरोध नहीं है । पूर्वापरविरोध का लक्षण और उसका खण्डन इसी ग्रंथ में पहले कहा गया है, क्योंकि "सर्व जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिये" । पुनः "यज्ञ के लिये ही पशुओं का बनाया है" इत्यादि वाक्य ही पूर्वापरविरोधी होते हैं ।
१. आप्तमीमांसा, कारिका ८ ।
२. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ४ ।